Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 159
________________ MHArmananwwwwwww NATIONAPANILan. तपस्वी वारिषेण । [३१७ ANART उसके सामने वसंतको मुग्ध कर सौन्दर्यको उपस्थित कर दिया, उसके हृदयमें रागरंग और विलासकी उदीप्त भावना भर दी। वह हृदयहारी वसंतकी शोभा निरीक्षणके लोभको संवरण नहीं कर सकी। मादक शृङ्गारसे सजकर वसंत उत्पव मनाने के लिए वह रामगृह के विशाल लपवनकी ओर चल पड़ी । उपवनके जवीन वृक्षोपर विकसित हुए मधु' कुसुमोको देखकर उस दिनोदिनीका हृदय खिल उठा। पधुरमसे भरे हुए पुष्प समूहपा गुजार करते हुए मधुपों के मधुर नादने उसके हृदयको मुग्ध कर दिया । उम्बनकी प्रत्येक शोभासे उसका हृदय तन्मय हो उठा था । कोकिलका कलिन • नन पक्षियों का मधुर कलाव और प्रेमका संदेश सुनाते हुए एक डाल से दृपरी डाली पर कुदकना, चहचहाना दृश्यको वाप छीन रहा था। उपवनके सजीव सौन्दर्य देवने हुए उसकी दृष्टि एक दम पोर जा पही यह एक चमकता हुआ हार था जो श्रीकीर्ति श्रेष्ठ के लेमें पड़ा हुआ था । मगधन्दरीका मन उनकी मोहक प्रभा पर ग्ध होगया । वह आश्चर्य चकित होकर विचार करने लगी। मैंने बतक कितने ही धनिकों को अपने कर जाल में फंपाया और नसे अनेक अमूल्य उपहा प्राप्त किए, लेकिन इपलाइके सुन्दर रिसे मे। कंठ अबतक शामित नहीं होसका, यह मेर सौन्दर्य के लिए त्यन्त लज्जाकी बात है। अब इम हारसे कंट मुशोभित होना हिए नहीं तो मेग सारा आकर्षण और चातुर्य निष्फल होगा। ____नारियों को अपनी स्वाभाविक प्रकृतिके अनुमार बहुमूल्य वस्रों और भूषणोंसे प्राकृतिक प्रेम हुमा करता है। अधिकांश महिलाएं

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