Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 158
________________ जैन युग-निर्माता | 1 ३१६ ] रंजित नृत्य से और किसीको स्निग्ध आलिंगन द्वारा अपने रूप जाल में फंसा लेती थी और उनका धर्म और वैभव समाप्त कर देती थी । राजगृह में उसके अनेक प्रेमी थे, लेकिन उसका वास्तविक प्रेम किसी पर नहीं था । उसके अनेक सौन्दर्योपासक थे, लेकिन वह किसीकी उपासिका नहीं थी, उसकी उपासना केवल द्रव्यके लिए थी । उसके अनेक चाहनेवाले थे, लेकिन वह केवल अपनी चाहकी विक्रेता थी । अपनी रूपकी रम्सीमें बांधकर उसने अनेक युवकको दुर्व्यसन के गइरे गट्टेमें पटक दिया था। उम गर्त में कोई मानव अपने स्वास्थका स्वाहा कर अनेक रोगों का उपहार लेकर निकलता था, और कोई अपना संपूर्ण वैभव फूंककर पथ २ का भिखारी बनकर निकल पाता था । कोई न कोई उपहार पास किए विना उसके द्वारसे निकल जाना कठिन था । उसकी सीधी. साल किन्तु कपटपूर्ण बातों और उदीप्त विलास मदिगके पानखे उन्मत्त, विवेकशूल्य मानत्र, विषय सुख शांतिकी इच्छा रखते थे । उसके तीव्र दाहक और प्रबल वेगस्ने बहनेवाले कृत्रिम प्रेमकी मिक्षा चाहते थे और सौन्दर्यकी उपासनामें तन्मय रहकर प्रसन्न होना चाहते थे । किन्तु उन्हें यह नहीं मालूम था कि यह मायाबीपनका जीवित प्रतिबिंब, दुर्गतिका जागृत दृश्य, अधःपतन सर्वनाश और अनेक आपत्तियोंका विधाता केवल धन वैभव खींचने का जाल है | आज सबेरे मगध सुन्दरी विलास वस्तुओंसे पूर्ण अपनी उच्च अट्टालिका पर बैठी थी। इसी समय कोकिलकी मनोमोहकको वृकने

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