Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 160
________________ ३१८] जैन युग-निर्माता। चमकीले भूषण और भड़कीले वस्त्रोंको पहन कर ही अपनेको सौभाम्य शालिनी समझती हैं । वेशक उनमें स्गुणों के लिए कोई प्रतिष्ठा न हो, विद्या और कलाओं का कोई प्रभाव न हो, शील और सदाचारका कोई गौरव न हो, लेकिन वह केवल नयनाभिरंजित वस्त्र और भूषणों से ही मापनको अलंकृत कर लेनेपर ही कृत कृत्य समझ लेती हैं। अपनेको सम्पूर्ण गुण सम्पन्न और महत्त्वशालिनी समझ लेने में फिर उन्हें संकोच नही होता। इसलिए ही नारी गौरवके सच्चे भूषण और अनमोल रत्न विद्या, कला, सेवा, संयम, सदाचार भादि सद्गुणों का उनकी दृष्टिमें कोई महत्व नहीं रहता। संपारमें यश और योग्यता प्राप्त करनेवाले बहुमूल्य गुणों का वे कुछ भी मूल्य नहीं समझतीं, और न उनके पानेका उचित प्रयत्न करती हैं। वे हरएक हालतमें अपनेको कृत्रिमतासे सजाने का ही प्रयत्न करती हैं । गहनों के इम बढ़े हुए प्रेमके कारण वे अपनी आर्थिक परिस्थितिको नहीं देखतीं वे नहीं देखती जेवरों से सजकर स्वर्ण परी बनने की इच्छा पूर्तिके लिए उनके पतिको कितना परिश्रम करना पड़ता है, कितना छल और कपट काके अर्थ मंग्रह करना पड़ता है। और वे किस निर्दयतासे उनके उस उपार्जित द्रव्यको जेवरोंकी बलिवेदी पर बलिदान कर देती हैं। कितनी हो भूषणप्रिय महिलाएं अपनी स्थितिको भी नहीं देखती और दूसरी धनिक बहनों के सुन्दर गहनोंको देखकर ही उनके पानेके लिए अपने पति और पुत्रोंको सदैव पीड़ित किया करती हैं, और सुन्दर गृहस्थ जीवनको अग्नी भूषण प्रियताके कारण कलह और झगड़ेका स्थान बना देती है।

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