Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 147
________________ ३०२ ] NCHITILADOR @chers mediante (sara @erEGORYACROBARANIR. JANGA " तुम मुझ एकको आज इस बेषमें देखकर सम्भवतः आश्चर्य से स्तब्ध हुए हो, किन्तु राजन् ! तुमने जो तनिक गइरी खोज की होती तो तुम समस्त साध्वी संघको मेरी जैसी स्त्रियोंसे भरा हुआ देखते । जो आंखों से अंधा और कानोंसे बधिर रहा हो उसे अन्य कौन समझा सकता है ? जैन युग-निर्माता | जैन साधु और साध्वियों में रक्खी हुईं श्रद्धा कितनी निश्वक है यह तुम जान गये होंगे। उपरोक्त शब्द श्रेणिक श्रवण नहीं कर सका, उसने कानों पर हाथ रखते हुए कहा : दुराचारियों ! तुम संसारको भले ही अपने जैसा मान लो, किन्तु महावीर प्रभूका साधु साध्वियों का संघ इतना भ्रष्ट, पतित अथवा शिथिलाचारी नहीं हो सकता है । तुम्हारे जैसे एक इसप्रकार भ्रष्ट - चरित्र के ऊसे अन्य पवित्र साधु साथियोंके संबंध में निश्चय करना आत्मघात है। मैं तो अब तक ऐसा मानता हूं कि जैन साधु और साध्वियों का संघ तुम्हारी अपेक्षा असंख्य गुणा उन्नत, पवित्र और 1 - 99 सदाचार परायण अन्त में श्रेणिक राजाकी परीक्षा करने आया हुआ दर्दुरक देव राजा के पैरों पर 'गर पड़ा और उसने उनकी अचल निःशंक श्रद्धाकी मुक्त कंठसे शमा की । प्रबल आन्नियों के सामने श्रेणिकका श्रद्धा-दीर न बुझ सका । अवक श्रद्धा* कारण राजा श्रेणिक, भविरति होने पर भी अगली चौबासीक प्रथम तीर्थकर होंगे !

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