Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 155
________________ महापुरुष जम्बूकुमार । [३१३ ___ एक दिनके लिए बनी हुई बालापनियोंने अपने पतिके अन्तस्तलकी पुकार सुनी । वह पुकार केवल शाब्दिक नहीं थी। यह किसी निवल भात्माका दंभ नहीं था। वह एक बलवान आत्माकी दिव्यवाणी थी । बालाओं के हृदयको उमने बदल दिया । वे आगे कुछ कहनेको असमर्थ थीं। अपने इस जीवनके स्वामी के चरणोंपर उन्होंने मम्तक डाल दिया । करुण स्वासे बोली-"स्वामी यह जीवन तो अब मापके चरणोपर अर्पित होचुका है, इसे अब हम किसकी शाणमें ले जाय आप हमारे मागके दीपक हैं भाप ही हमें मार्ग दिखलाइए । हमारा कर्तव्य क्या है यह हमें समझाइए।" ____ जम्बुकुमारका हृदय एक भारसे हलका होचुका था । अबतक मो उनके लिए बोझ था वही उनका सार्थक ही बन रहा था। उनके साम्हने एक ही पथ था । उसी पयपर चलने का उन्होंने आदेश दिया। मार्ग साफ होचुका था । उसपर चलन भरका विलंब था। माता पिता अब उनके भवरोधक नहीं रह गए थे। विपुल चल पर · गौतमस्वामी केवली' की शरणमें सब पहुंचे माता, पिता, पत्नियां, विद्युत चोर और उसके साथी सब एक ही पथके पथिक थे । ___ चौबीस वर्षके तरुण युवक ने गणाधीश गौतमके चरणों में अपने नीवनको डाल दिया । गौतमने उनके विचारों की प्रशंसा की और लोककल्याणका उपदेश दिया। गणाधीशका माशीर्वाद लेका वे अपने गुरु सुधर्माचार्य के निकट पहुंचकर बोले-" गुरुदेव ! क्या मेरी परीक्षा समाप्त हो चुकी है या भभी कुछ और मंजिलें तय करनी है ?"

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