Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 144
________________ २९६ ] जैन युग-निर्माता | वे ईर्षा के सामने कर्तव्यको भूल गए थे विवेकको उन्होंने ठुकरा दिया था एक न्यायशील राजा होकर भी उन्होंने अन्याय और अत्य नाके सामने सिर झुका लिया था कृपाण लेकर वे आगे बढ़े, इमी एक भयंकर काळा सप उनके सामने फुंफकारता हुआ दौड़ा। मुनके मस्तक पर पड़नेवाली कुशण सपेके गले पड़ी इस अचानक आक्रमणने उनके हृदयको बदल दिया था, बदले की भावना नष्ट नहीं हुई थी । लेकिन उसमें कुछ कमी मध्य आगई थी, साधु के 'लेमें मरा हुआ सर्प डालकर ही उन्होंने मन बदलेकी भावना शांत कर ली । साधु यशोष के गलेमें सपे डाका मे प्रसन्न थे। सोच रहे थे, साधु अवन गलेमे को निकाल कर फेंक देगा, लेकिन अब इस समय इतना बदला ही काफी है, संध्या का समय भी हो चुका था, वे संतोषी हुए अपने महलको चल दिए । ( २ ) मिजो कुछ कर आये थे उसे वे गुप्त रखना चाहते थे, लेकिन हृदय उनके कृत्यको भरने अंद' रखने को तैयार नहीं था । वह उसे निकाल बाहर फेकना चाहता था, तीन दिन तक तो उन्होंने अपने इस कृत्यको मनी से अपटा। लेकिन चौथे दिन जब रात्रिको में राज्य महल में अपनी शय्या पर लेटे हुए थे उनका साधुके साथ किया हुआ दुष्कृत्य उबल पड़ा । वह गनी पर प्रकट होकर ही रहना चाहत भ । राजा काचार थे, उन्होंने साधुके ऊपर सर्प डालने की कहानी कह सुनाई ।

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