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जैन युग-निर्माता।
उत्तर नहीं था। वह अब अपनेको अधिक समय तक प्रहन्न नहीं समझा, वह पराजित हो चुका था। महात्माके चरणों में पड़कर वह बोला-महात्मन् ! क्षमा कीजिए । महावैद्यका परीक्षण करने मैं भाया था वैद्य बनकर । मैं आपकी व्याधिको निमूर करना तो दूर उसका निदान भी नहीं जानता। हम व्याधिके विनाशक तो आप ही हैं । आपमें ही कर्मफल और जन्ममग्ण नष्ट करनेकी शक्ति है। मैं तो आपकी निम्हता देखने आया था उसे देख चुका । आपका योग साधन, आपकी आत्म तन्मयता, आपकी निर्ममत्वता आदर्श है, वास्तवमें आप निस्पृह योगी हैं। मैं तो आपका चरण सेवक हूं. भापका अपराधी हूं, क्षमाका पात्र है। प्रार्थना करके देव अपने स्थानको चला गया।
योगीराजने तीव्र कर्मके फलको योगकी प्रचंड उष्णतामें पका हाला, उसके रसको ध्यानामिसे नष्ट कर दिया । तीक्ष्ण व्याधिको के पोगये, योगको महान् शक्तिके साम्हने कर्मफल स्थिर नहीं रह सका वह जलकर भस्म हो गया। योगीराजने दिव्य आत्मसौन्दर्यके दर्शन किये, उसमें उन्होंने अपनेको मात्मविभोर करा दिया, उनका मानस पटल अात्म-सौन्दर्यकी उस अद्भुत प्रभासे जगमगा उठा था जो मविनश्वर थी, स्थायी थी और अमर थी।