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तपस्वी गजकुमार |
[ १९९ नीचे हो गए । उनकी दृष्टि गजकुमारके चमकते मुखमण्डलपर मटक गईं। सभी सभासदों के मुंहसे निकली हुई धन्य २ की ध्वनिसे सभामंड] गुञ्ज उठा । महाराजाका हृदय हर्पसे परिपूर्ण होगया । उन्होंने कुमारकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा फिर उसके साहसकी परीक्षा करते हुए वे बोले
प्रिय पुत्र ! मैं जानता हूं कि तू वीर और पराक्रमी है, लेकिन तेरी युद्धकला अभी अपरिपक्व है। अपराजित अनेक नरेशका सैन्य बल पाकर प्रचंड बलशाली होगया है । जब अनेक रणविजयी सेनापतियोंके जोश उसके सामने ठंडे हो रहे हैं तब तेरे जैसे बालकका उसके ऊपर विजय प्राप्त करने जाना नितांत हाम्यजनक है । तेरे साहस के लिए धन्यवाद है, किन्तु उसके साथ युद्ध करनेका तेरा विचार करना श्रमजनक है । मैं तुझे युद्धकी इम आगमें नहीं डालना चाहता । मैं खुद ही आक्रमण करके उस घंमडीका सिर नीचा करूंगा !
पिताके शब्दोंको सुनकर कुमार अपने जोशको नहीं रोक सके। उन्होंने तेजपूर्ण स्वर से कहा - पिताजी ! क्या अल्पवयस्क होने से सिंहपुत्रोंका पराक्रम हाथियोंके सामने हीन हो सकता है ? क्या वह क्षीण शरीरधारी तेजस्वी सिंहसुत दीर्घ शरीरधारी गजेन्द्र के मस्तकको विदीर्ण नहीं कर डालता ? क्या आप नहीं जानते हैं कि छोटासा अमिरुण बढे भारी ईंधन के ढ़ेरको एक क्षणमें भस्म कर देता है ? मैं अल्पवयस्क हूं इससे आप मुझे शक्तिद्दीन तथा युद्धकका शून्य समझ रहे हैं, लेकिन आपका ऐसा समझना गलत है । पिताजी ! सिंह - बालकको कोई युद्धकला नहीं सिखलाता, उसमें तो स्वभावतः हाथियों को पछाड -