Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 128
________________ o mmmmmmmmsaavammencemeworwanamimammmmmmmmmmmmmmmm २६४] जैन युग-निर्माता . पा व्याप्त होगया, मंगल गान होनेलगा और याचकों को अभीष्ट वस्तु मिलने लगीं। कैसा माश्चर्य जनक प्रसंग था यह । इघर पुत्र जन्म उधर पति वियोग ! संसार कितना रहस्य मय है ! मुन्द्रदत्तने पुत्र जन्मका संवाद सुना, पर थे तो इस दुनियांसे बहुत दूर चले गये थे। इतनी दूर कि जहांसे लौटना ही अब असंभव था। यशोभद्राने भी सुना, पति तपम्वी बन गए हैं। उसे कुछ लगा पर ह तो पुत्र-जन्मके हर्षमें इतनी अधिक मम थी कि उसे उस समय कुछ अनुभव ही नहीं हुआ। शुम्यताके अवगुंठनमें छिपा हुभा सुरेन्द्रदत्तका प्रांगण भाज बाहकोंकी चहल पहलसे नाग उठा था, बालकों के समूहसे घिरे हुए सुकुमालको देखकर माताका हृदय उस अकरिस्त मुस्खका अनुभव कर रहा था. जो मे जीवनमें कभी नहीं मिला था। मकुमालका शरीर चमकते हुए सोनेकी तरह था। कीमती वस्रोस मजर जर नह बास्य चारसे चलता था, तब दर्शकों के नेत्रु उसकी और वरवस विंच नाते थे। बालकके सरल और भकृत्रिम स्नेह-सुघाको पीकर मां अपने हृदयको तृप्त करने लगी। शंकित हृदय कहीं विश्राम नहीं पाता । कुछ समयसे यशो. भद्राका हृदय अपने पुत्रकी ओरसे किसी अज्ञात भयसे भरा रहता है। बहना हुमा सुकुमार नपसे अपनी लीलामोंसे टसे प्रसन करने लगा तभीसे उसके हृदयको गुप्त माशंका और भी अधिक बढ़ने

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