Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 131
________________ जैन युग-निर्माता । २७४ ] सुकुमालने सुना--परदा उलट गया था। अब उसे कुछ दूसरा ही दृश्य दिख रहा था । खुल गये थे उसके हृदय कपाट | उसे कुछ कुछ अपना बोध होने लगा । साधु फिर बोले- मानवकी महत्ता केवळ विश्व मत्र एकत्रित करने में नहीं है । अनन्त वैभवका स्वामी बनकर ही वह सब कुछ नहीं बन जाता । वास्तविक महत्ता तो त्याग में है - निर्मम होकर सर्वस्व दानमें ही जीवनका रहस्य है । स्वामी तो प्रत्येक व्यक्ति बन सकता है। ज्ञान लय, हिंसक और व्यसनव्यस्त व्यक्ति भी वैभव के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हो सकते हैं । किन्तु त्यागी विरले ही होते हैं। वे सर्वस्व त्याग कर सब कुछ देकर भी उस अकालनिक सुखका अनुभव करते हैं जिनका अंश भी रागी बात नहीं कर सकता । MAT सुकुमाल आगे और अधिक नहीं सुन सका । बोला-महात्मन: अधिक मत कहिये में अब सुन न सकूंगा मैं लज्जाएं मग जाता हूँ । मैंन आजतक अपने को नहीं समझा। ओइ ! कितना जीवन मेरा व्यर्थ गया ! अब नहीं खोना चाहता । एक एक पल में अपने उस विषयी जीवन के प्रायश्चितमें लगाऊं ॥ | मुझे आप दीक्षा दीजिये | अभी इसी समय- मुझे आप अपने चरणों में डाल लीजिये | साधुने दक्षा दी। सुकुमालका सुकुमार हृदय आज कटोर पत्थर बन गया । बड़ाई के भयंकर मैदान में शत्रुओंको विजित कर देना बीरता अवश्य कहलायगी | मयंकर गर्जना और चमकते हुए नेत्रों से मनुष्यों को

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