Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 110
________________ वित्रप हृदय चारुदत्त । २२३ ANWwwwwwww Humawariwww Nanawarenewwwwwww तास रस्सा काट दे।। और तेरी जगह यह पत्थर वापी में गिर जायगा ! इसके बाद मैं तुझे वापी से निकलनका उपाय बतलाऊंगा। अब अधिक समय नहीं है, कहीं वह दुष्ट अपनी इस बातको सुन लेगा तो तेरे प्राण बचाना कठिन हो जायगा । चारुदत्तने तुम्बी इससे भर कर ऊपर पहुंचा दी, तापसी तुम्बी लेकर प्रसन्न हुआ । दूपरी वार चारुदत्त ने अपने स्थ न पर पत्थर कांच दिया, तामसीने उमे बो चसे ही काट दिया । पत्था वावही में गिग और च रुदत्त के प्राण बन गए। चारुदत्त अपने प्राणों को सुरक्षिन देख पपन्न हुआ, उमने वापी में पड़े व्यक्तिसे बाहिर निकलने का मार्ग पूछा, अपरं चिकने कहा-संध्या समय इस वापीका २स पनेके लिए एक बहा गोद माना है, भाज संध्याको भी वह आया । तुम उपकी पूछ रह का इम वा विकासे निकल जाना, भय मत काना, पृछ मरबूनीसे पक रहना, गोरकी कृगसे तुम वापसे बाहिर निकल जाओगे। ___ अपरिचित व्यक्तिके उपकारको चारुदत्त नहीं भूल सका, वह उसकी सहायता काना चाहता था, लेकिन मारि चन अब मृत्युके सन्निकट था, प्रयत्न करके भी वह उसे वाहिर न निकाल सकता था, उसने नमोकार मंत्र जाप करने के लिए दिया और उसका महत्व समझाया। गोहकी कृपासे वह अब वापीक बाहिर था, लेकिन इस भयानक जंगलमें अपना कुछ कर्तव्य नहीं सोच सकता था। संध्या समय हो गया था, वह तापसीकी दृष्टि से बचना चाहता था, इसलिए वह जंगल में एक ओर बढ़ चला।

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