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१४४ ] जैन युग-निर्माता । सुमेरु पर्वत जैसी यह निश्चल प्रतिज्ञा ली है, वह जैनेन्द्रदेव, दिगम्बर ऋषिके अतिरिक्त किसी विश्वके सम्राटको नमस्कार नहीं करेंगे।"
दशाननने कहा-मन्त्री ! तब क्या बालि देवने मुझे नमस्कार करनेकी अनिच्छासे ही ऐसा किया है ? नहीं ! बालिदेवका राज्य मेरे माश्रित है। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वह मुझे प्रणाम न करे और मेरी आज्ञा शिरोध यं न करे ? मंत्री ! प्रयत्न करने पर मी तुम्हारी इस बात पर मुझे विश्वास नहीं होता। ___मंत्री ने कहा-महाराज ! 'कर कंकणको मासीकी क्या भावश्यक्ता ? ' एक दूत भेजकर माप इसका स्वयं निर्णय कर सकते हैं। लंकेशकी मुद्रा से अंकित एक आज्ञापत्र टसी समय वालीदेवके पास राज्य दून द्वारा भेजा गया।
वालिदेव किन्वा नग के अधिाति थे। प्रख्यात कपिवंशमें उनका जन्म हुमा था, वह बड़े पराक्रमी वो। और दृढपतिज्ञ थे। उन्हें यह राज्य दशाननकी कृपासे प्राप्त हुआ था। राज्यसिंहामन पर आसीन होते ही उन्होंने अपने दृह प्रतिक्रमके प्रभावसे भला समयमें ही अनेक विद्याधरों को अपने आश्रित का लिया था । तटस्थ समस्त राजाओं में वह महामण्डलेश्वरके नामसे प्रसिद्ध थे। निकटस्थ राजाओंर उनका अद्भुत प्रभुत्व था। उनकी उन सबपर अनिवार्य माज्ञा चलती थी।
वाली देव धर्मनिष्ठ कर्मठ और विद्वान् थे। जैनधर्म पर उन्हें निश्चल श्रद्धा थी। नित्यकर्म पालनमें वह सतर्कतापूर्वक निरन्तर तत्पर रहते थे।