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योगी सगरराज ।
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लालसाओं को तृप्त करने का प्रयत्न किया है किन्तु क्या वे तृप्त हुई है ! नहीं। सम्राट् ! इच्छा पूर्णकी लालसा में मम हुा मानव अपनी अपूर्ण कामनाओं को साथ लेकर ही संपारसे कृनका जाता है। आपका कर्तव्य है कि जबतक आपकी इन्द्रिएं चलवान हैं उन्होंने आपको नहीं छोडा है, और जबतक भापकी शक्ति और सामर्थ्य आपसे विदा नही मांग चुकी है, उपके पहिले आप इस विलासकी आंधीको शान्त कर लें, नहीं तो यदि फिा मामथ्र्य नष्ट हो जाने पा, विषयों ने ही आपको त्याग दिया तो फि. आपके ज्ञान और विवेक क्या मूल्य हेगा। इपलिए आप व संगाको चिनाएं छोड़कर लोकरल्याणकी चिंता करें, और जनता के हित के लिए भवस्व त्याग करें।
सम्राट्ने मित्र मणिकेतुके परामर्शको सुना, लेकिन उस वे प्रभावित नहीं हुए, उनके मनपर उसकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। उनका मन तो इस समय वैभव के जाल में फंसा था, मोहमें मोहित होरहा था और विलामका नशा अभी उनपर चढ़ा था, फिर उन्हें त्यागकी बात कैसे पपन्द आती ?
मणिकतु उनके अंताङ्ग भावों को समझ गया, उपने अंत में अपने कर्तव्यकी स्मृति दिलाते हुए उनसे कहा-मित्र ! मंग कर्तव्य था कि मैं तु संचेष्ट करूं । तुम इस समय ममत्वमें फंसे हुए हो इसलिए मेरी बातोंकी वास्तविकताको नहीं समझ रहे हो, लेकिन एक दिन भाएगा बन तुम उसे समझोगे । अच्छा. अब मैं आपसे विदा लेता हूं, यदि मापका मन चाहे तो कभी मेरा स्मरण कर लेना । मणिकेतु चला गया और सम्राट् सगर भी अपने नगरको लौट भाए।