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चक्रवर्ति भरत । [५१ चक्रवर्तीके उत्तासे भद्र पुरुषको काफी संतोष हा जो जनता अभीतक इस विषयमें मौन थी, वह भी इस समाधानसे संतुष्ट हुई।
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भानजी का हृदय बहुत उदार था, वे अपनी द्रव्यका बहतमा भाग प्रतिदिन संयमी, और व्रती पुरुषों को दान में देना चाहते थे । वे ऐसा कार्य करना चाहते थे, जिपसे उनकी कीर्ति संसा में चिस्थाई रहे। वे चाहने थे. कोई भद्र पुरुष उनसे कुछ मांगे और वे उपको दान में कुछ दें, किन्तु 34 समयके सभी मनुष्य अपने वर्ण के अनुमा। कार्योको करते थे, श्रम काना वे अपना कर्तव्य सम्झन थे. और श्रम द्वारा उन्हें जो कुछ मिलता था, उसमें संतोष रम्वत थे, उन्हें और किमी चौकी चाह नहीं थी । अपनी कमाईमें ही जीवन निर्वाह करते थे, द्रव्य संचय का वे अधिक तृष्णाके गट्टे में नहीं पहना चाहते थे, वे माल थे, मादा जीवन गुजारना में प्रिय था । किसास कुछ चाइना दोन सीग्वा नहीं था ।
सम्राट् भातको इस विषयको चिन्ता थी बहुत कुछ सोचने पर उन्होंने एक उपाय निश्चित किया । उन्होंने एक ऐपा वर्ण स्थापित कान की बात मोची जिपका जीवन दान द्रव्य पर ही निर्भर है, उमे दान लेने के अतिरिक्त कोई शारीरिक श्रम या कार्य न पड़े, उस वर्ण के वे पुरुष अधिक विचारशील, दय लु और बुद्धिमान हों। अग्नी बुद्धि बलसे सम्राट्न उनका चुनाव करना चाहा और एक दिन नगरके सभी नागरिकों को उन्होंने अपनी सबसमा निमंत्रित किया।