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आशीर्वचन
भारतवर्ष की संस्कृति अत्यन्त व्यापक, उदार तथा विशाल है । यह वैदिक, जैन तथा बौद्ध परम्परा की त्रिवेणी के रूप में भिन्न-भिन्न मार्गों से बहती हुई भी समन्वय के संगम पर पहुँची । यह इसका अपना वैशिष्ट्य है । इन तीनों ही परम्पराओं द्वारा आविष्कृत विचार- दर्शन के सुधा- कणों से इसका सन्निर्माण हुआ । अतएव यह सर्वदा और सर्वथा सुधास्यन्दिनी रही और आज भी है ।
इस संस्कृति के निर्मापक, परिपोषक तत्त्वदर्शन एवं वाङ्मय का गहन अध्ययन हो, इसमें मैं इसके समुन्नयन एवं विकास का बीज पाता । इस देश का साहित्य असीम विशालता और व्यापकता लिए हुए है, जो संस्कृति के प्रकृष्ट प्राणप्रतिष्ठापक रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है । इस प्रसंग में मैं संस्कृति, साहित्य तथा दर्शन के क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों, अनुसन्धित्सुओं तथा साहित्यिकों का विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा, वे अपने तुलनात्मक अध्ययन, अनुशीलन के सन्दर्भ में जैन वाङ् मय का विशेष रूप से पर्यवेक्षण करें । सामष्टिक अध्ययन से चिन्तन की परिपक्वता निष्पन्न होती है ।
जैन आचार्यों, विद्वानों, लेखकों तथा कवियों ने ऐसा पुष्कल साहित्य रचा, जिसने भारतीय संस्कृति तथा जीवन-दर्शन के विकास एवं संवर्द्धन में बहुत बड़ा योगदान किया। उनमें एक अत्यन्त उत्कृष्ट विद्वान तथा महान् ग्रन्थकार थे - याकिनी महत्तरा सूनु आचार्य हरिभद्र सूरि, जिनका समय ई० सन् ७०० - ७७० माना जाता है । उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं में अनेक ग्रन्थ रचे । योग पर भी उन्होंने चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की, जो पाठकों के समक्ष प्रस्तुत पुस्तक के रूप में उपस्थापित हैं ।
योग एक महत्त्वपूर्ण विषय है, जिसका जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है । आज योग को लेकर देश-विदेश में अनेक प्रवृत्तियाँ चल रही हैं। योग क्या है, जीवन में उससे क्या सधना चाहिए— इसे यथावत् रूप में समझने की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है । जैनयोग ग्रन्थों में -- विशेषतः इन ग्रन्थों में इन विषयों पर बड़ा मार्मिक तथ | तलस्पर्शी विवेचन हुआ है । अतएव इनके पठन-पाठन की अपनी विशेष उपयोगिता है ।
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