Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 20
________________ 10 ] [ जैनविद्या-13 सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।। अर्थात् प्राणीमात्र में मित्रता की भावना, गुणीजनों में प्रमोद भावना, दीन-दुःखियों के प्रति कृपा-भाव और जो हमारे से विपरीत विचारधारा रखते हों उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखनेरूप हमारे भाव हों। इसी प्रकार अन्य पद्यों में कवि ने अपने आराध्य देव की स्तुति में उसकी वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ के रूप में प्राराधना की है । साधक के अपने आराध्यदेव को दर्शनज्ञान-स्वभाव-बाला बताया है यो दर्शन-ज्ञान-सुखस्वभावः समस्तसंसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ कवि ने अपने आराध्य देव को मुक्तिमार्ग का प्रतिपादक और जन्म-मृत्यु के दुःखों से अतीत बताया है विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनाधतीतः । त्रिलोकलोको विकलो कलंकः स देवदेवो हृदये ममास्तां ॥ जिस देव ने अपनी गोद में समस्त शरीरधारियों को ले रखा है अर्थात् उसके ज्ञान में समस्त लोक है फिर भी वह वीतरागी है क्रोडीकृताऽशेषशरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयो नपाय: स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ ___ इस प्रकार समस्त 32 पद्य जिनेन्द्र की स्तुति में लिखकर उनको अपने हृदय में बसाने की भावना की है। 6. पाराधना-यह रचना शिवार्य कृत प्राकृत आराधना का संस्कृत रूपान्तर है। इस ग्रन्थ में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं का विवेचन है । इस संस्कृत आराधना में जैनधर्म के प्रायः सभी प्रमेय लिये गए हैं। प्रशस्ति में आचार्य देवसेन से लेकर प्राचार्य अमितगति तक की गुरुपरम्परा को भी दिखाया गया है । पं. कैलाशचन्द जी शास्त्री द्वारा शिवार्य की प्राकृत आराधना की हिन्दी टीका जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुकी है किन्तु उसमें संस्कृत रूपान्तर नहीं है ।

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