Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 82
________________ 72 ] [ जनविद्या-13 इस विषय पर अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक है । मुख्यरूप से जो कुछ उन्होंने इस व्रत के सम्बन्ध में बताया है उसका शाब्दिक भाव हम यहाँ प्रस्तुत कर अनर्थदण्ड का शाब्दिक भाव यह है कि बिना प्रयोजन ऐसे कार्य न करें जिससे हमें दण्ड का भागी होना पड़े। यहाँ दण्ड का अर्थ पाप तो है ही किन्तु सामाजिक और न्यायिक दण्ड भी इसमें सम्मिलित है। बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य स्वयं तो कोई दुष्कर्म नहीं करता किन्तु दूसरों को उल्टे-सीधे उपदेश देता रहता है उन्हें कुमार्ग की ओर चलने हेतु प्रेरित करता है, फलस्वरूप वे लोग कभी-कभी तो जबरदस्त हिंसा कर बैठते हैं। आज भारत में जो स्थान-स्थान पर हिंसा का नग्न ताण्डव हो रहा है, सारा पर्यावरण हिंसक कार्यों से दूषित हो रहा है उसके पीछे मूलकारण आज के मानव का तथाकथित प्राचार भी है। ऐसे लोग स्वयं तो दण्ड पाने से ही बचे रहते हैं किन्तु उसका फल दूसरे निरीह प्राणियों को भोगना पड़ता है । कुछ लोग व्यर्थ ही शृंखलाबद्ध रूप से दूसरों के अहित करने का मन ही मन चिन्तन करते रहते हैं । इससे यद्यपि दूसरों का अहित तो सम्भवतः नहीं होता किन्तु ऐसे व्यक्तियों का मानसिक पर्यावरण निश्चित रूप से दूषित होता है। कभी-कभी कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है कि वे ठाले बैठे कोई न कोई गलत कार्य करते रहते हैं। कोई जमीन पर बैठे-बैठे जमीन खोदने लगता है, कोई यदि पानी के किनारे बैठा हो तो. हाथों से पानी उछालता रहता है, कोई बैठे-बैठे कंकर फेंका करता है। किसी के हाथ में यदि कोई कागज आ जाये तो बत्तियां सी ही बनाया करता है या उन्हें फाड़ता रहता है, पेड़ के नीचे हो तो पेड़ की टहनियों व पत्तों को तोड़-तोड़ कर फेंकता रहता है इससे कई बार बड़ी दुर्घटनायें घटित हो जाती हैं । कभी कंकर दूसरे की आँख में चला जाता है, कभी पानी का जानवर काट लेता है, कभी महत्वपूर्ण कागजों को फाड़ने लग जाता है, कभी गांवों में जो भीषण अग्निकांड होते हैं उनमें सैकड़ों झोपड़ियां जल जाती हैं उसके पीछे मानव की एक छोटी सी लापरवाही है यथा पीने के बाद बीडी या सिगरेट बिना बुझाये फेंक देना । पर्यावरण की अशुद्धता के पीछे जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है मानव के बहुत से ऐसे कार्य हैं जिन्हें न जानते हुए भी वह अपने प्रमादवश देश, राष्ट्र और समाज का तथा कभीकभी अपना स्वयं का भी बड़ा अहित कर बैठता है । प्रायः हम समझते हैं कि ट्रक इत्यादि में क्षमता से अधिक भार लादना, बसों, रेलों आदि में उनकी क्षमता से अधिक सवारियां बैठाना/बैठना, टेम्पो, स्कूटर आदि पर भी दो के स्थान पर तीन-चार कभी-कभी तो पांच आदमियों का लद जाना ये सब कार्य ऐसी दुर्घटनाओं को जन्म देते हैं जिनमें करोड़ों का आर्थिक

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