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जैन विद्या-13
उपोद्धात
विप्रकुलोत्पन्न किन्तु जैनधर्म में दृढ़ श्रद्धानी पिता सूर तथा माता केसुल्ला के लाडले, विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास जन्मे महाकवि धवल अपभ्रंश साहित्याकाश के एक ऐसे नक्षत्र हैं जिनका पूर्ण प्रकाश अभी भी साहित्य धरातल तक पहुंचना शेष है। जो थोड़ी बहुत टिमटिमाहट अव तक पहुंच पाई है उससे ही यह असंदिग्धरूप से सिद्ध हो जाता है कि वे स्वयंभू, पुप्फयंत, धनवाल, वीरु आदि अपभ्रंश भाषा के रचनाकारों से किसी भी दृष्टि से कम महत्वशाली नहीं हैं। उन द्वारा निबद्ध अब तक ज्ञात एकमात्र महाकाव्य हरिवंशपुराण इस विधा की एक आदर्श रचना है ।
___ भाषाविद्, काव्यमर्मज्ञ एवं दार्शनिक मनीषी तथा चिन्तक हमारे इस कथन की सत्यता की परीक्षा कर सकें एतदर्थ उक्त पुराण के थोड़े से प्रारम्भिक अंश एवं उनका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इससे पाठकों को ज्ञात होगा कि कवि की भाषा कितनी प्राञ्जल तथा प्रवाहयुक्त है, उसमें अलंकार, मुहावरे तथा लोकोक्तियां किस प्रकार स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त होकर काव्य को अलंकृत तथा सुशोभित करते हैं । रचनाकार ने रचना का प्रारम्भ ही हरिवंश को कमल की उपमा के साथ किया है।
'जूववसेण ण वत्थु चइज्जहि' की तुलना राजस्थानी भाषा में प्रचलित लोकोक्ति 'जुवां के साटै घाघरो कौने फेंक्यो जाय' से की जा सकती है। प्राचार्य अमितगति ने भी अपने श्रावकाचार में लिखा है, 'तथापि कुर्वति महानुभावास्त्याज्या न यूकाभयतो हि शाटी' जुएं के भय से साड़ी नहीं त्यागी जाती (1.10)। 'पिसुण चउक्का' जैसे शब्दों की तुलना हिन्दी में प्रचलित 'चाण्डाल चौकड़ी' जैसे शब्दों से सहज ही की जा सकती है। काव्य में पग-पग पर ऐसे स्थल हैं जिनका अध्ययन और मनन भाषाशास्त्रियों के लिए रुचिकर एवं