Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 75
________________ जैनविद्या - 13 ] प्रेल 1993 [ 65 पंचसंग्रहकर्ममीमांसा का अपूर्व ग्रन्थ - डॉ. श्रीरंजन सूरिबेव श्रीमाथुराणामनधद्युतीनां सङ्घोऽभववृत्तविभूषिताम् । हारो मणीनामिव तापहारी सूत्रानुसारी शशिरश्मिशुभ्रः ॥ माधवसेनगरणी गरणनीयः शुद्धतमोऽजनि तत्र जनीयः । सूर्यासि सत्त्ववतीव शशाङ्कः, श्रीमति सिन्धुपताकलङ्कः ॥ शिष्यस्तस्य महात्मनोऽमितगतिर्मोक्षार्थीनामग्रणी - रेतच्छास्त्र शेष कर्म समितिप्रख्यापनायाकृतं । O जैन वाङमय में, दसवी - ग्यारहवीं शती के मध्यवर्ती श्रमितगति नाम के दो प्राचार्यों का उल्लेख हुआ है । इनका इतिवृत प्रमितगति प्रथम और श्रमितगति द्वितीय नाम से उपलब्ध होता है । इनमें 'पंचसंग्रह' नामक कर्ममीमांसा - ग्रन्थ के कर्त्ता श्रमितगति को माथुर संघ के प्राचार्य माधवसेन का शिष्य बताया गया है । इस सन्दर्भ में 'पंचसंग्रह' के बालचन्द कस्तूरचन्द गांधी, धाराशिव एवं राजूभाई भ्र. वीरचन्द दोशी, धाराशिव द्वारा सोलापुर से वीर. संवत् 2457 के भाद्रपद में प्रकाशित संस्करण की ग्रन्थकार प्रशस्ति द्रष्टव्य है अर्थात् चारित्र से शोभित, निर्मल कीति के धारक, हार में गूंथी हुई मणियों के समान तापहारी, सूत्रानुसार चलनेवाले, चन्द्रकान्ति के समान उज्ज्वल माथुरों का एक संघ हुम्रा है । उसमें माधवसेनगरणी नाम के प्राचार्य हुए जो चारित्र से अत्यन्त शुद्ध थे और प्रसंख्य तारों के बीच रहनेवाले तथा श्रीसम्पन्न समुद्र में निष्कलंक प्रतिभासित होनेवाले चन्द्रमा के समान थे ।

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