________________
जनविद्या-13 ]
[.67
वणित किया गया है । पंचम परिच्छेद के (कुल 484) श्लोकों में कर्मबन्ध के भेदों का वर्णन है और षष्ठ परिच्छेद (कुल 90 श्लोक) में बताया गया है कि गुणस्थानों की मार्गणा में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है और कितनी का नहीं। इस प्रकार यह पंचसंग्रह कर्ममीमांसा के सांगोपांग विवेचन की दृष्टि से विश्वसनीय, प्रामाणिक एव स्वत:पूर्ण ग्रन्थ है। ग्रन्थान्त की पुष्पिका के अनुसार इस कर्मनाशक ग्रन्थ की रचना शक-संवत् 1073 में मसूतिकापुर (मसूतीपुरी) में हुई । पुष्पिका इस प्रकार है
त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दानां सहस्त्र शकविद्विषः । मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनोरमम् ॥
इस पुस्तक की 'पंचसंग्रह' संज्ञा की अन्वर्थता ग्रन्थकर्ता अतिगति ने इस प्रकार बताई है
बन्धकं बध्यमानं यो बन्धेशं बन्धकारणम् । भाषते बन्धभेदं च तं स्तुवे पंचसंग्रहम् ॥12॥
अर्थात् बन्धक, बध्यमान, बन्धेश (बन्ध के स्वामी), बन्धकारण और बन्धभेद- इन पाँच बातों के संग्रह को 'पंचसंग्रह' कहते हैं । इस 'पंचसंग्रह' का जिन्होंने प्रवचन किया है, उन जिनेन्द्र की मैं स्तुति करता हूँ।
ग्रन्थकार ने 'बन्धक' की विशद विवेचना के क्रम में निष्कर्ष उपस्थापित करते हुए कहा है कि जीव का औदयिक भाव ही बन्धक है। जीव के पाँच स्वभावों-प्रौदयिक, क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, में अन्यतम या प्रथम प्रौदयिक भाव कर्मबन्ध उत्पन्न करते हैं । अतः मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह प्रौदयिक, क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भावों से रहित द्रव्य की स्वाभाविक, अनादि, पारिणामिक अर्थात् शुद्ध जीवत्व की स्थिति में पहुंचने का प्रयास करे, क्योंकि यह स्थिति उमयात्मक है। इसमें न बन्ध का कारण होता है, न ही मोक्ष का । मूल श्लोक इस प्रकार है
बन्धमौदयिका मोक्षं क्षायिकाः शामिकाश्च ते। उभयं कुर्वते मिश्रा नोभयं पारिणामिका 11-14॥
प्राचार्य अमितगति ने बध्यमान या कर्मबन्ध के योग्य एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों का वर्णन इस प्रकार किया है
ज्ञानदृष्ट्यावृती वेद्यं मोहनीयायुषी मताः । नामगोवान्तरायाश्च मूलप्रकृतयोऽष्टधा ॥