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[ जनविद्या 13
एताः पंचनव द्वे स्युष्टाविशतिरुत्तराः ।। चतस्रो नवतिस्त्रयग्रा द्वे पंच च यथाक्रमम् ॥23॥
अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायये आठ मूल कर्मप्रकृतियां हैं। इनमें ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नौ, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस, आयु के चार, नाम के तिरानवे, गोत्र के दो और अन्तराय के पाँच भेद हैं । इस प्रकार आठ मूल कर्म-प्रवृतियों के कुल एक सौ अड़तालीस भेद हैं । ये कर्म-प्रकृतियाँ यदि ज्ञान की सीमा में आ जाती हैं तो वीतराग पुरुष उन्हें ध्यानाग्नि या ज्ञानाग्नि में जला देते हैं । गीता में भी भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से यही बात कही है
ययेषांसि समृद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मासात्कुरते तथा ॥3:37॥ बुधजन ज्ञानाग्नि से दग्ध कर्मवाले को ही तो पण्डित कहते हैं
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ।।गीता 4 19॥ भगवान् महावीर ने भी ध्यानाग्नि से प्रकृति को दग्ध कर दिया था
यो ज्ञात्वा प्रकृतीदेवो दग्धवान् ध्यानवह्निना। तं प्रणम्य महावीरं क्रियते प्रकृतिस्तवः ॥1
बन्धेश का तात्पर्य बन्धोदय-सत्ता का विच्छेद है । अमितगति ने इस सन्दर्भ में कहा है कि जीव के कर्मप्रदेशों का फिर कभी बन्ध न होने योग्य बन्ध ही बन्धेश या बन्ध का स्वामी है । इसे वीतराग देवों ने 'क्षय' कहा है
जीवकर्मप्रदेशानां विश्लेषो यःपरस्परम् । अपनर्भविकोऽवाधि स क्षयः क्षीणकल्मषैः ॥3:10।।
बन्धोदयसत्ता के क्षय का जो नित्य-प्रति विचार करता है, वह कर्मों का नाश करके, अमित ज्ञान का धारक होते हुए ज्ञानात्मक शुद्ध अथवा पारिणामिक आत्मदशा या गीता के अनुसार ब्राह्मी स्थिति में पहुंच जाता है
बन्धोदयोदोरणसत्क्षयाणा विचारणां यो विदधाति नित्यम् । विविक्तमात्मानमपास्तकर्मा । नानात्मकं सोऽमितगत्युपैति ।।3.106।।