Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 43
________________ जैनविद्या - 13 ] [ 33 तथा स्तवन आत्मशांति प्राप्त करने एवं कर्मों की निर्जरा करने हेतु सुरेन्द्र, नरेन्द्र, मुनीन्द्र ( गणधरादि ) अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति के साथ किया करते हैं तथा वेद, पुराणादि शास्त्रों में भी जिनका गौरवमयी यशोगान प्रमुखता के साथ बारम्बार किया गया है। जो देवों के मी देव हैं, अपने दर्शन, ज्ञान, सुख-स्वभाव से समृद्ध हैं, समाधिगम्य हैं एवं समस्त विकारों से रहित होने से परमात्म संज्ञा को धारण करते हैं । वे जगत् के प्रकाशक हैं, जन्म, जरा और मृत्यु से रहित हैं तथा योगि- ज्ञान-गम्य हैं । मुक्ति मार्ग का सार्वधर्म के रूप में प्रतिपादन करने से वे त्रिलोकीनाथ हैं - जिन्होंने, राग, द्वेष, मोहादि विकारों से रहित होकर भी तीनों लोकों के समस्त प्राणियों को बिना किसी भेदभाव के परम कारुण्य भाव से मुक्तिमार्ग का प्रतिपादन कर (सम्पूर्ण दुःखों से त्राण पाने हेतु) मानो अपनी गोद में ही बिठा लिया है । वे भगवान् इन्द्रिय ज्ञान जो परोक्ष कहलाता है— से रहित हैं, किन्तु अतीन्द्रिय आत्मोत्थ प्रत्यक्ष निरावरण ज्ञान 'संसार के समस्त पदार्थों एवं उनकी गतिविधियों की बिना प्रयास किये जानकारी रखने के कारण सर्वव्यापक हैं । वे विकार - विनाशक और कर्मकलंकरहित होकर शुद्ध हैं, बुद्ध हैं, निरंजन और निर्विकार हैं । वे अपने ज्ञान के द्वारा विश्वव्यापी होकर भी आत्म-स्वरूप में स्थित हैं । वे शांत एवं शिव-स्वरूप हैं । फिर अतुल्य एवं अनन्त गुण विशिष्ट हैं । ऐसे हे वीतराग जिनेन्द्र देव ! मेरे हृदय में आकर विराजो | देव ! आपका ध्यान करने से प्राणियों के सभी प्रकार के प्रांतरिक विकार दूर हो जाते हैं और उनसे कर्म -कालिमा वैसे ही दूर रहती है जैसे कि सूर्य से अन्धकार | आप स्वयं भी कर्ममलों से रहित, नित्य और द्रव्य-दृष्टि से एक होकर भी अपने अनन्त गुणों एवं पर्यायों की दृष्टि से अनेक भी हैं । हे भगवन् ! आपमें विश्वव्यापी समस्त पदार्थों का प्रकाशक अनन्त ज्ञान विद्यमान है जिसकी सूर्य भी तुलना करने में असमर्थ है । आपके ज्ञान में अपनीअपनी सत्ता को लिये हुए समस्त पदार्थ पृथक्-पृथक् स्वयं ही स्पष्टतया झलकते रहते हैं । प्रभो ! आपने दुर्जेय कामविकार के साथ ही, दुरभिमान, मूर्छा, विषाद, निद्रा, चिन्ता, भय, शोकादि समस्त दोषों को इस प्रकार ध्वस्त कर दिया है जिस प्रकार दावानल वन-वृक्षों को जलाकर भस्म कर देती है । हे देव ! आपके इन्हीं सब सद्गुणों एवं महिमा से प्राकृष्ट होकर मैंने आपकी शरण ली है । इस प्रकार भगवज्जिनेन्द्र के गुणों का स्मरण, स्तवन एवं अभ्यर्थना करते हुए प्राचार्यश्री ने निश्चय का प्रालंबन लेकर अपनी आत्मा एवं उसके कर्तव्य के प्रति अपना ध्यान प्राकृष्ट किया है । वे स्वयं को सम्बोधित करते हुए लिखते हैं कि वास्तविक दृष्टि से सर्वगुणसम्पन्न कारण-परमात्मा के रूप में अपनी आत्मा ही सम्यक् समाधि का साधन है अतः श्रात्ममिन पाषाणशिलाएँ, चटाइयाँ, भूमियाँ, संधारा अथवा लोकपूजा, संघसंगति आदि समस्त बाह्य पदार्थों की वासना से मुक्त होकर उन्होंने श्रात्मलीन हो जाने की प्रांतरिक भावना को

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