Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ ___जनविद्या-13 ] जनविद्या-13 ] अप्रेल-1993 -193 । | 41 भावना-द्वात्रिंशतिका-शान्तरस का निर्झर -डॉ. कु. पाराधना जैन 'स्वतन्त्र' काव्यशास्त्रियों ने रसात्मक वाक्य को काव्य कहा है । किसी रचना को पढ़कर हृदय में जो एक विशेष भाव की जागृति होकर आनन्दानुभूति होती है वह रस है । रसों की संख्या नौ है-1. शृगार, 2. हास्य, 3. करुण, 4. रौद्र, 5. वीर, 6. भयानक, 7. वीभत्स, 8. अद्भुत और 9. शान्त । इनमें रसराज अर्थात् प्रमुखतम रस कोनसा है इस सम्बन्ध में काव्यशास्त्रियों में मतभेद है । कुछ शृंगार को रसों का राजा मानते हैं तो कुछ शान्त को । शान्त रस समभाव को जागृत करनेवाला होने से योगीगण स्वभावतः इसे ही प्रमुखता प्रदान करते हैं जबकि भोगी इससे ठीक विपरीत आचरण करते हैं । जब मानव समस्त बाह्य जगत से नाता तोड़ प्रात्मोन्मुख होता है तब आत्मा में समत्व जागृत होता है । तब उसके लिए कंचन-काच, महल-मसान, धनी-निर्धन आदि में कोई भेद नहीं होता। जितनी मात्रा में विरक्तभाव होता है उतनी मात्रा में समत्व जागृत होकर मात्मा में शान्त रस की निष्पत्ति होती है। सच्चे साधु ऐसे ही समत्व के साधक, शांत एवं भद्रपरिणामी होते हैं जिन्हें देखकर मानव का मस्तक स्वतः ही श्रद्धा से उनके आगे नत हो जाता है। शान्तिपथ के पथिक आचार्य अमितगति ने अपनी वीतरागी साधना और प्रखर प्रतिभा का सदुपयोग करते हुए मोक्षमार्ग के प्ररूपक शास्त्रों/साहित्य का सर्जन किया है जो सहृदय के हृदय को शांत रस से सराबोर कर देते हैं। प्राचार्यश्री की एक ऐसी ही कृति है-भावना द्वात्रिंशतिका । बत्तीस श्लोकों की यह लघु कृति एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है जिसके आलोक

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102