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जनविद्या-13 ]
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कि बाण के सूक्ष्म छिद्र से अर्जुन पृथ्वी को भेदकर दस करोड़ सेनासहित शेषनाग और सप्तर्षियों को खींच ले आया । यदि ये सही हो सकता है तो हमारी बात सही क्यों नहीं हो सकती ? इसी प्रकार के पौराणिक आख्यानों को निजधरी कथाओं के माध्यम से निरस्त करने का प्रयत्न किया है । इसी के साथ ही अन्य पौराणिक कथाओं की सयुक्तिक समीक्षा भी की गयी है, इसके लिए अमितगति की धर्मपरीक्षा के निम्नस्थल विशेषरूप से द्रष्टव्य हैं13. 90-102, 15.56-66, 16.92-100 ।
धर्म की परिधि के अन्तर्गत दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्थान है । कथानों की सर्जना दर्शन को समझाने के लिए ही की जाती है। इसीलिए दर्शन और कथा के सूत्र परस्पर सघनता से जुड़े हुए रहते हैं। अमितगति ने धर्म की परीक्षा और उसकी समीक्षा करने के लिए जिस प्रकार कथाओं को हाथ में लिया उसी प्रकार उनके तुरन्त बाद ही वे दर्शन पर व्याख्यान करने लगते हैं। उनकी यह व्याख्या मिथ्यात्व के खण्डन और सम्यक्त्व के मण्डनपूर्वक होती है । इस तथ्य को हम निम्नांकित शीर्षकों में झांक कर देख 'सकते हैं ।
। धर्म और संसार-प्राचार्य अमितगति ने धर्म की परीक्षा के दौरान भौतिकवादी वृत्ति से विमुख होकर धर्म की ओर उन्मुख होने के लिए संसारियों को प्रेरित किया । इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने संसार के स्वरूप की मीमांसा की जिसे हम विशेषरूप से पांचवें-छठे परिच्छेद में देख सकते हैं। यहां उन्होंने कहा कि संसाररूपी वन में आत्मा के सिवाय दूसरा कोई भी अपना नहीं है। आत्मा के अतिरिक्त सभी परिजन स्वार्थी और मोही होते हैं । इस क्षणभंगुर संसार में स्वार्थ देखकर ही व्यक्ति की सेवा करते हैं। ऐसे संसारी प्राणियों पर वे हंसते हैं जो पुत्र. मित्र आदि के लिए तरह-तरह के पाप करते हैं पर उनका फल वे अकेले ही भोगते हैं । वस्तुतः इन्द्रिय-विषयों का उपभोग महादुःखदायी होता है इसलिए प्राचार्य इस महादुःख से मुक्त होकर शाश्वत सुख को प्राप्त करने के लिए धर्म की आराधना करने का उपदेश देते हैं । उनकी दृष्टि में धर्म वही है जो अक्षण्णरूप से प्राणी को सुख देनेवाला हो। ऐसे साधकों के मन में प्रात्मा और देह में भिन्नता बैठ जाती है, क्रोधादि विकारभाव दूर हो जाते हैं, क्षमा, मार्दव आदि भाव जाग्रत हो जाते हैं, पंच महाव्रतों के पालन करने से उनका चित्त निर्मल हो जाता है । प्राचार्य के अनुसार विनयी पुरुषों के ही पवित्र धर्म हो सकता है ।
धर्म और संसार के इसी स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में समूचा धर्मपरीक्षा ग्रन्थ खड़ा हुआ है। जितनी भी कथाएं इस ग्रन्थ में समाहित की गयी हैं वे सब किसी न किसी पक्ष को उद्घाटित करती हैं। उनके इस उद्घाटन में जैनेन्द्र-धर्म का स्वरूप दर्पण-वत् बिल्कुल स्पष्ट है और इसीलिए वे कहते हैं कि जो लोग मिथ्यात्व-मार्ग में आपादमग्न अपने मित्र को सन्मार्ग पर नहीं लाते वे उसे भयंकर कुए में डालते हैं । मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई अन्धकार नहीं