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जैनविद्या-13 ]
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स्नान से पवित्रता-प्राप्ति का खण्डन-जैनधर्म भावों की पवित्रता पर अधिक जोर देता है, शारीरिक कृत्यों पर उतना नहीं । सामान्यजन गगा-स्नान आदि को पवित्रता की प्राप्ति का संकेतक मानते हैं, यह एक आश्चर्य की बात है । जल से शारीरिक मल दूर हो सकता है पर शरीर के अन्दर रहनेवाले शुक्र, शोणित, मांस, आदि विकृत तत्व तथा मन में उत्पन्न हुए क्रोधादि विकार भाव कैसे दूर हो सकते हैं ? संसारी जीव जो पाप मिथ्यात्व, असंयम और अज्ञान से उपाजित करते हैं वे सम्यक्त्व, संयम और ज्ञान के बिना कैसे दूर हो सकते हैं ? जो जल शरीर को भी शुद्ध करने में असमर्थ है वह जीव के भावों और पापों को कैसे शुद्ध कर सकता है ? यदि गंगा-स्नान को शुद्धि का कारण माना जाए तो उसमें रहनेवाली मछलियां अथवा अन्य जीव तो फिर सीधे स्वर्ग प्राप्त करेंगे । जैनधर्म का यह एक ऐसा प्रगतिशील तत्व है जिसे उत्तरकालीन बौद्ध प्राचार्यों और सन्तों ने पूरी तरह अपनाया है (16.34-39)।
प्रात्मा को अस्तित्व-हीनता का खण्डन-जैनदर्शन प्रात्मा को मूलतः अजर, अमर और परम विशुद्ध मानता है । प्राचार्य अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा में प्रात्मा के इसी स्वरूप को स्पष्ट किया है और कर्मवाद की प्रस्थापना की है। उन्होंने भूतवादियों का खण्डन करते हुए कहा है कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? चित्त-चेतन ज्ञानात्मक होता है और उसका पूर्वज्ञान उत्तरवर्ती ज्ञान का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में आधार के बिना प्राधेय का अपलाप कैसे किया जा सकता है ? आत्मा आधार है और ज्ञान प्राधेय है। शरीर और आत्मा को अभिन्न भी नहीं माना जा सकता। शरीर जड़ है, रूपी है पर चेतन अरूपी है जो ज्ञान-चक्षु से प्रतीत होता है। जड़-रूप नेत्रों से चेतन को नहीं देखा जा सकता। जड़ अलग है और चेतन अलग है । आत्मा की मूलविशुद्धि तभी होती है जब परकर्मों का जो आवरण चढ़ जाता है उसे ध्यान, तप आदि सम्यक् साधनों से दूर कर दिया जाता है। इसी सन्दर्भ में प्राचार्य ने बौद्ध धर्म की सर्व-शून्यता, अनात्मवाद तथा क्षणिकवाद का खण्डन किया है जिसे विस्तार से धर्मपरीक्षा में देखा जा सकता है (16.40-77)।
इनके अतिरिक्त हम प्राचार्य द्वारा वर्णित रात्रि-भोजन के दुष्परिणामों का भी उल्लेख कर सकते हैं। जैसा हम जानते हैं मूलाचार में "तेसिं चव वदाणां रक्खहठं रादिभोयणविरत्ती” (5-98) से स्पष्ट किया गया है कि पंचव्रतों की रक्षा के लिए रात्रि-भोजन-विरमण का पालन किया जाना आवश्यक है। यही परम्परा भगवती आराधना (6.185-86, 1207), सूत्रकृतांग (वैतालीय अध्ययन), दशवकालिक, चारित्रप्रामृत (21) आदि ग्रन्थों में । भी मिलती है। बाद में समन्तभद्र ने इसे रात्रि-भुक्तिवत नामक छठी प्रतिमा के रूप में स्थान दिया। अमितगति ने इसे बारह व्रतों के अतिरिक्त श्रावकों के लिए एक नियम के रूप में स्वीकार किया और रात्रि-भोजन के कारण होनेवाली बीमारियों की विस्तार से चर्चा