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[ जैनविद्या-13
निकाल कर उपस्थित कर देता है । हरिषेण का सन्धि विभाजन अमितगति के परिच्छेदविभाजन से अधिक वैज्ञानिक है ।
भाव, भाषा की दृष्टि से तुलना
दोनों धर्मपरीक्षाओं की भाव-भाषा की दृष्टि से भी तुलना की जा सकती है जहाँ उन्होंने पारम्परिक शैली को अपनाया है । उदाहरणतः -
धर्मपरीक्षा
धम्मपरिक्खा
11.19
2.3
3.61
1. यत् त्वां धमिवं त्यक्त्वा तंत्र भद्र चिर स्थित 2. जातःतामो द्विधा नूनमित्थं भावन्त काश्चन 3. तं जगाद खेचरांगजस्ततो भद्रनिर्धनशरीरभूरहे 4. 5. चौदीव स्वार्थन्निष्ठा बहिज्वालेव तापिका
3.85
2.5
8.44-45
2.11
5.59
2.15
5.82-85
2.16
8.22.34
3.9
साधारणतः यह नियम रहा है कि पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते समय मूल उद्धरण उपस्थित किए जाने चाहिए। हरिषेण ने तथोक्तभर कहकर उस परम्परा का पालन किया है, पर अमितगति ने अपनी इच्छानुसार परिवर्तितरूप में ग्रन्थ के मूलरूप में समाहित कर दिया है । उदाहरणार्थ
1. हरिषेण की धम्मपरिक्खा (4.1) में 'तथाचोक्तम्' कहकर 'मत्स्य-कूर्मो
वराहश्च' श्लोक उद्धृत किया है जिसे अमितगति ने 'व्यापिनं निष्कलं ध्येयं जरामरण सूदनम्' पद्य रच दिया है (10.58-59)।
2. हरिषेण की धम्मपरिक्खा (5.7) में 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' को अमितगति ने थोड़ा सा परिवर्तन कर इस प्रकार लिखा है -
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो न तपसो यतः । ततः पुत्रमुखं दृष्टवा श्रेयसे क्रियतो तपः ।।118॥
3. हरिषेण के 'नष्टे मृते प्रव्रजिते' (धम्मपरिक्खा 4.7) को अमितगति ने इस
प्रकार लिखा है