Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 52
________________ 42 ] [ जनविद्या-13 में हम अपने बहुल सुविधाभोगी जीवन में सात्त्विक, तात्त्विक एवं आध्यात्मिक जीवनमूल्य खोज सकते हैं। तत्वचिंतन के द्वार खोलकर, सही दिशा में सही पुरुषार्थ करके साम्यभाव द्वारा आत्मानन्द में डुबकी लगाकर सुख शांति का अनुभव कर सकते हैं । ___ आचार्यश्री अमितगति ने 'भावना द्वात्रिंशतिका' में प्रात्मविशद्धि के विभिन्न साधनों जैसे समता भाव, प्रायश्चित इत्यादि संसार के निस्सार एवं दु:खमय स्वरूप, संसार परिभ्रमण के कारण और निवारण के उपाय, संसार-भीरुता, वैराग्य, तत्त्वज्ञान आदि विभावों, यम, नियम, ध्यान, धारणा, सर्वभूतदया, प्रभृति अनुभावों, निर्वेद, स्मृति, शौच आदि व्यभिचारीभावों का मानसपटल पर अंकित करनेवाला चित्रण किया है जिससे सहृदय स्थित 'शम भाव' जागृत हो जाता है और वह शान्तरस के सागर में निमग्न हो आनन्दानुभूति करता है । कृति के प्रथम पद्य में कवि की 'सर्वजनहिताय एवं स्वान्त सुखाय' की भावना परिलक्षित हो रही है जो समत्व एवं शमत्व से युक्त शान्तरस की अनुभूति कराने में पूर्ण समर्थ है सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदाममात्मा विदधातु देव ।। 12 ॥ साम्यभाव आत्मशुद्धि का एक साधन है । इष्ट-वियोग और अनिष्ट-सयोग की विषम परिस्थिति में सन्तुलित बने रहने/विचलित न होने पर समभाव की प्राप्ति होती है। समभाव में 'शम भाव' उबुद्ध होता है । सहृदय शान्ति-सुधा का पान करने लगता है । सुखे दु:खे वैरिणि बन्धुवर्गे योगे वियोगे भुवने वने वा । निराकृताशेष ममत्वबुद्धः समं मनो मेऽस्तु सदापिनाथ ॥ 3 ॥ स्वकृत अनुचित कार्यों पर पश्चात्ताप करना भी आत्मशुद्धि का एक प्रमुख साधन है । इससे पापों की विशुद्धि होती है, अात्मा में निर्मलता बढ़ती है और सामाजिक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करता है । विनिन्दनालोचनगर्हग रहं मनोवचः कायकषायनिर्मितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारणं भिषविषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ॥7॥ अतिक्रमं यद्विरमतेर्व्यतिक्रमं जिनातिचारं सुचरित्रकर्मणः । व्यधामनाचारमरिण प्रमादतः प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥ 8 ॥

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