________________
जैन विद्या-13 1
[ 43
क्षति मनः शुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेविलवनम् । प्रमोऽतिचारं विषयेणुवर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्ताम् ॥१॥
पदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादाद्यदि किंचनोक्तम् । तन्मेक्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलबोधलब्धिम् ॥ 10 ॥
बोधिसमाधिः परिणामशुद्धिः स्वात्मोपलब्धि शिवसौख्यसिद्धिः। चिन्तामणि चिन्तितवस्तुदाने त्वां वंद्यमानस्य ममास्तु देवि ॥ 11 ॥
पर-पदार्थों के प्रति अनासक्ति का भाव जागरित कर मुक्ति की ओर उन्मुख करनेवाले निम्न पद्य में शान्तरस की व्यंजना दर्शनीय है
न सन्ति बाह्या मम केचनार्या भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्य स्वस्थ सदा त्वं भव भवमुक्त्यै ।।
तत्त्वज्ञान से प्रात्मस्वरूप के बोध तथा संसार की असारता एवं दुःखमयता की प्रतीति होती है तब ममता का प्रभाव और सुसमता के आविर्भाव से चित्तवृत्तियां शान्त हो जाती हैं तथा वह महनीय आनन्दमय लोकों का स्पर्श करने लगता है
प्रात्मानमात्मन्यवलोक्यमनस्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ॥25॥
एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा विनिर्मलः साधिगम स्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीया. ॥26॥
यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि साधं तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रः । पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः कुतो हि तिष्ठन्ति शरीर मध्ये ॥ 27 ।।
पाठक सहृदय को दुःख के कारण तथा कष्टदायी दुःखों से मुक्ति के मार्ग का अवबोध होता है, उस समय विराग आदि अनुभावों से 'शम भाव' उद्बुद्ध हो कर सहृदय को शान्तरस का प्रास्वादन करा देता है
संयोगतो दुःखमनेक भेदं यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो यियासुना निर्वृत्तिमात्मनीनाम् ।। 28 ।।