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| जैन विद्या- 13
सर्वनिराकृत्य विकल्पजालं संसारकान्तारनिपात हेतुम् 1 विक्तमात्मानमवेक्ष्यमारणो निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ।। 29
जब सामाजिक को यह बोध हो जाता है कि उसे स्व-कर्मानुसार फल मिलता है और उसे वह फल भोगना ही पड़ता है तब उसका समता भाव जागरित होता है । 'पर मुझे कर्मफल देता है' ऐसी अन्य पर कर्तृत्व की बुद्धि नष्ट होती है । स्वकृत कर्मफल को शान्ति समभावपूर्वक भोगने की प्रेरणा मिलती है और वह असीम सुख शान्ति के सागर में हिलोरे लेने लगता है—
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुराफलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ।। 30 ।।
निजाजितं कर्मविहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन् । विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्च शेमुषीम् ॥ 32 ।।
भगवान के गुणों का स्तवन भी उद्विग्न चित्त को शान्त करने में सहायक कारण है—
विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीतः । त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। 15 ।।
क्रोडीकृताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये
ममास्ताम् ।। 16 ।।
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो घुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ 17 ॥
न स्पृश्यते कर्मकलङ्क दोषैयों ध्वान्तसंधैरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनं नित्यमनेकमेकं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ 18 ॥
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सुख-शांति के आराधक एवं उपासक प्राचार्य अमितगति ने 'भावना -द्वात्रिंशतिका' में रसानुभूति के द्वारा सामाजिक को कर्त्तव्याकर्त्तव्य के उपदेश से हृदयंगम कराया है तथा संसार की प्रसारता और दुःखमयता और मोक्ष की सारभूतता एवं सुखमयता की ओर ध्यान आकृष्ट कर मोक्ष की ओर उन्मुख करने का सफल प्रयास किया