Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 49
________________ जैन विद्या - 13 ] 9 39 उसमें विभिन्न परिस्थिति, व्यक्ति अथवा कर्मोदि को अनिष्ट का कारण कहकर अपनी कमजोरी को दूसरों पर थोप देता है । सब अच्छी क्रियाएं व फल अपनी झोली में बटोर लेता है | जैसे - " अमुक व्यक्ति ने मुझे क्रोध दिला दिया' अथवा 'विकट परिस्थिति के कारण मैंने "झूठ बोला' आदि 1 दूसरे रूप से 'अगर मैं न होता तो यह बच्चा बड़ा आदमी न बनता ' -आदि । यहाँ आचार्यश्री ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि प्रत्येक जीव अपने कृतकर्म का ही फल भोगता है— स्वयं कृतं कर्मे यदात्मना पुरा, फलं तदोयँ लभते शुभाशुभम् १ परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानस, परो ददाति इति विमुच्य शेमुषीम् ॥ एक के कर्म का फल दूसरा आत्मदोष निवृत्ति का उपाय खोजो विधाता हो । नहीं भोग सकता । अतः परदोषारोपण वृत्ति को छोड़ अपनी छुपी शक्ति को जागृत करो। तुम स्वयं प्रपने श्रात्मशरण्य - चौथा अन्य प्रमुख तथ्य है कि प्राचार्यश्री ने किसी भगवान या परमात्मा की शरण लेने की प्रेरणा नहीं दी । व्यक्ति स्वयं परमात्मा है । स्वयं की शरण लो, पर की शरण पराधीनता है, दुःख है, बन्धन है । वह पारिणामिक भावरूप परमतत्त्व जन्म-मरण से रहित, बन्धन और मुक्ति के विकल्प से मुक्त, विकाररहित, ध्रुव है, सहजज्ञानमात्र है । वह इन्द्रिय-ज्ञान का विषय नहीं है । वह तो अनुभवगम्य है । जो एक है, साश्वतं है, निर्मल है, वह स्वयं तू है । वास्तव में तो वह तत्त्व प्रवाच्य है । फिर भी जिसको ऋषियों ने 'नेति नेति' कहा है वह चैतन्य तत्त्व बाह्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न है | स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धी तो सर्वथा भिन्न हैं ही, वह तो शरीर व रागादि भावों से सर्वथा पृथक् है । विचारों न मैं किसी का हूँ, न कोई दूसरा मेरा है | किंचित् मात्र भी बाह्य पदार्थ मेरा नहीं है । जितने भी पदार्थाश्रित प्रिय अप्रियता के भाव हैं वे सब उस परमतस्व में नहीं हैं । त्रिविधि विकारोभावों से भिन्न सर्व विकल्पों को त्यागकर उस चैतन्यरूप परमतत्त्व में लीन हो जाओ। वही परमतत्त्व है, परमात्मा है । ऐसे सहज समाधि की प्रेरणा दी है । कहा है सर्व निराकृत्य विकल्पजालं, संसार कान्तार निपात हेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो, निलोयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥

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