Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 45
________________ जैनविद्या-13 1 [ 35 बनकर प्रात्मा को परमात्मा बना लेना ही जिनशासन का सारभूत उपदेश है । यद्यपि जिनस्तधन या भक्ति करने में शुभराग का अंश होने से साधक को अपरिमित एवं सातिशय पुण्य का संचय भी होता है, किन्तु इसके द्वारा शुभकर्मों का संवर और बद्धकर्मों की निर्जरा होने से भक्त का कर्मभार बहुत ही कम हो जाता है और भावों में वीतरागता का जो संचार होता है उससे उसका मोक्षमार्ग भी प्रशस्त होने लगता है । अनेक सज्जन निश्चयकांत का पक्ष ग्रहण कर यह मानते और प्रचार करते भी देखे जाते हैं कि जैनशासन में वंद्य-वंदक या पूज्य-पूजक भाव ही नहीं है। सम्भवतः वे इसलिए जिन दर्शन-वंदन, स्तवनादि रूप आचरण को केवल बन्ध का ही कारण मानते हैं एवं स्वयं रागी, द्वेषी व दुःखी रहते हुए भी प्रात्मा को शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार सर्वथा मान सन्तुष्ट हैं। उन्हें भी प्राचार्यश्री की यह रचना अपना भ्रम-निवारण करने में उपयोगी सिद्ध हो सकती है यदि वे अपनी भ्रांतियों से मुक्त होना चाहें। परम आध्यात्मिक सन्त श्रीमद्भगवत् कुन्दकुन्द स्वामी ने अरहन्त-भक्ति को सम्यक्त्व कहा है । उनके शब्द हैं - प्ररहन्ते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं । सोलं विषयविरागो गाणं पुणकेरिसं भणियं ।।40॥ शीलपाहुड़ इस गाथा का अर्थ करते हुए पं. प्रवर जयचन्दजी लिखते हैं-"अरहन्त में शुभ भक्ति का होना सम्यक्त्व है । वह कैसा है, सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) से विशुद्ध है-तत्त्वार्थों का निश्चयव्यवहार रूप श्रद्धान और बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगम्बर रूप का धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दर्शन से विशुद्ध अतीचाररहित निर्मल है, ऐसा तो अरहन्त-भक्तिरूप सम्यक्त्व है । विषयों से विरक्त होना शील है और ज्ञान भी यही है, तथा इससे भिन्न ज्ञान कैसा कहा है ? सम्यक्त्वशील बिना तो ज्ञान मिथ्यारूप अज्ञान है ।" ' एकीभाव स्तोत्र में वादिराज मुनिराज ने जिनेन्द्र-मक्ति को कर्मबन्धन को समाप्त करनेवाली कह कर अन्य समस्त दुःखों को दूर करनेवाली दर्शाया है परम श्रद्धास्पद मानतुंग स्वामी ने भक्तामर स्तवन में जिन-स्तवन को जन्म-जन्मान्तर के पापों का नाश करनेवाला प्रतिपादित किया है-त्वत्संस्तवेन भवसंतति सनिबद्धं, पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम् आदि ।7। आगे उन्होंने 10वें श्लोक में भगवान् की गुणगान द्वारा उपासना करनेवालों को भगवान् ही बन जाने की सुदृढ़ श्रद्धा को भी अभिव्यक्त किया है। अन्य आचार्यों ने भी भगवद्भक्ति को प्रात्मकल्याण का सरल और अमोघ साधन मान शत मुख से प्रशंसा की है। साधु के मूलगुणों के अन्तर्गत षड् आवश्यकों में भी प्रतिदिन वन्दना और स्तुति करने का विधान किया गया है। प्राचार्य समन्तभद्र ने तो प्रायः जिन-भक्तिपरक ग्रन्थों की ही रचना की है।

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