Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 46
________________ 36 ] [ जैनविद्या-13 भावना द्वात्रिंशतिका में भी इसी तथ्य को उजागर कर प्राचार्यश्री अमितगति कृतार्थ हुए हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सम्यग्दृष्टि भगवद्भक्ति वीतराग बनकर कर्मोच्छेद करने के पवित्र उद्देश्य से ही करता है, पुण्यबन्ध के उद्देश्य से नहीं। भले ही भक्ति-भावों में शुभराग के अंशों द्वारा सातिशय पुण्य का स्वयं ही संचय भी होता है । जैसे किसान अनाजप्राप्ति के उद्देश्य से बीज बोता है, किन्तु भूसे की प्राप्ति उसे प्रासंगिक रूप में स्वयं होती है । अतः पुण्य-संचय के भय से भगवद्भक्ति से विरत हो जाना और उससे अशुभ कर्मों के संवर तथा बद्ध कर्मों की निर्जरा द्वारा होनेवाले लाभ से वंचित हो जाना बुद्धिमत्ता नहीं है।

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