Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 41
________________ जैन विद्या-13 ] अप्रैल-1993 [ 31 आचार्यश्री अमितगति की सर्वोपयोगी रचना भावना-द्वात्रिंशतिका-सामायिक पाठ पं. नाथूराम डोंगरीय जैन सिद्धान्तबर्मन प्ररमपूज्य प्राचार्यश्री अमितजति ने धर्म-प्रभावना बहुआयामी अनेक मन्त्रों की अब से करीब एक हजार वर्ष पूर्व (वि. सं. 1050 से 1078 के बीच) रचना कर साहित्य, समाज एवं धर्म की ब्रहुमूल्य मेवा की श्री। उन्होंने सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, उबासकाचार, तत्त्वभावना, अाराधना, पंचसंग्रह, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्राप्ति, क्याख्याप्रज्ञप्ति, बार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति, भावना-द्वात्रिंशतिका आदि रचनाओं द्वारा मानव-समाज को अनुपम निधियाँ प्रदान की हैं जो अाज स्वाध्याय द्वारा जैनधर्म एवं सिद्धान्त का मर्म समझो में अमोघ साधन बनी हुई हैं। इन ब्रहुमूल्य रचनाओं ने प्राचार्दाश्नी की ज्ञान-गरिमा का सहज ही आभास हो जाता है। यद्यपि आको सभी रजनाएँ जानवर्धक होने में महत्वपूर्ण हैं तापि भावनाद्वात्रिंशतिका लवुकाय होने पर भी सूत्ररूप में एक ऐसी रचना है जो न केवल मुनिवृन्द को प्रत्युत मानवमात्र को प्रात्मशुद्धि हेतु कण्ठस्थ कर प्रतिदिन और प्रतिक्षण पाठ कर अपने भावों में पवित्रता का संचार एवं आत्मा को स्वस्थ बनाए रखने का भी प्रमुख साधन बन गया है। इसमें निश्चय और व्यवहार की समन्वित भावना से अपनी अपरिमित भगवद्भक्ति तथा प्रात्मानुभूत उद्गारों को आत्मविभोर होकर बड़ी तत्परता के साथ अभिव्यक्त किया गया है। इसका पाठ करते समय आत्मा में विशुद्ध भावों की उद्भूति के साथ ही वीतराग भावों का संचार भी स्वय होने लगता है-यदि पाठ मन लगाकर, एकाग्र होकर किया जावे । फलस्वरूप इससे अलौकिक पूर्वबद्ध पापकर्मों का क्षय होने से मोक्षमार्ग भी प्रशस्त होता है ।

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