Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 25
________________ जनविद्या-13 ] [ 15 तथा एकेन्द्रिय बादर तथा सूक्ष्म के पर्याप्त तथा अपर्याप्त की अपेक्षा दो भेद, इस प्रकार चार प्रकार के स्थावर के हित की जो इच्छा करता है, वह विरताविरत श्रावक है (6.16)। हिंसा के दो भेद हैं—एक प्रारम्भी हिंसा और दूसरी अनारम्भी हिंसा । जो गृहत्यागी मुनि हैं वे दोनों प्रकार की हिंसा नहीं करते, किन्तु जो गृही है वह अनारम्भी हिंसा तो छोड़ देता है, किन्तु प्रारम्भी हिंसा नहीं छोड़ सकता (6.6-7) । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना रूप विकल्पों द्वारा नौ प्रकार से जीवों की हिंसा न करने को अहिंसाणुव्रत बतलाया है । प्राचार्य अमितगति ने कहा है कि जो श्रावक घर छोड़ चुके हैं, वे नौ प्रकार से हिंसा का पालन कर सकते हैं, किन्तु जो घर में रहते हैं, वे अनुमत हिंसा से नहीं बच सकते, अत: गृहवासी श्रावक छह प्रकार से हिंसा का त्याग करता है त्रिविधा द्विविधन मता विरतिहिंसादितो गृहस्थानाम् । त्रिविधा त्रिविधेन मता गृहचारकतो निवृत्तानाम् ।। 6.19 ।। 2. सत्याणवत-जिनका चित्त धर्म में रत है वे काम, क्रोध, क्रीड़ा, प्रमाद, लोभ, मोह तथा द्वेष इन भावों से असत्य वचन नहीं बोलते हैं (6.46)। असत्य चार प्रकार का होता है-1. असदुद्भावन, 2. भूतनिह्नव, 3. विपरीत और 4. निन्छ । निन्द्य के तीन भेद हैंसावध, अप्रिय और गह। यह वर्गीकरण पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के आधार पर किया गया है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में भी असत्य के चार भेद किए गए हैं-1. विद्यमान वस्तु का निषेध करना । जैसे देवदत्त के घर में रहते हुए यह कहना कि देवदत्त यहाँ नहीं है । 2. अविद्यमान वस्तु को विद्यमान बतलाना दूसरा असत्य है, जैसे घट के नहीं होते हुए भी यह कहना कि घट है । 3. कुछ का कुछ कह देना तीसरा असत्य है, जैसे बैल को घोड़ा बतलाना । 4. चौथे असत्य के तीन भेद हैं-गर्हित, सावन और अप्रिय । किसी की चुगली करना, हँसी करना, किसी से कठोर बातें कहना, बकवाद करना आदि गहित है। मारो, काटो, इसके घर में आग लगा दो, लूट लो इत्यादि वचनों को सावद्य कहते हैं। जो वचन वैर, शौक, कलह, खेद और सन्ताप करनेवाला हो, वह अप्रिय है। 3: प्रचौर्याणुव्रत खेत, ग्राम, वन, गली, घर, खल और घोष में पड़े हुए, भूले हुए अथवा रखेहुए परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना चाहिए। धर्म की आकांक्षा करनेवाले को बिना दी हुई वस्तु अग्नि समान मानकर तृणमात्र भी ग्रहण नहीं करना चाहिए (6.59-60) । जो जिसका धन हरता है, वह उसका प्राण ही हरता है, क्योंकि जीवों की स्थिरता करनेवाला धन बाह्य प्राण है

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