Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 34
________________ 24 ) [ जनविद्या-13 ज्ञानं त्रिलोके सकले.... सर्वेऽपि लोके विधयो हितार्था ज्ञानादृते नैव भवन्ति जातु । अनात्मनीयं परिहर्तुकामास्तदथिनो ज्ञानमतः श्रयन्ति ।।921 शक्यो विजेतुं न मनःकरीन्द्रो गन्तुं प्रवृत्त: प्रविहाय मार्गम् । ज्ञानांकुशेनात्र विना मनुष्यविनांकुशं मत्तमहाकरीव ।।93। क्षेत्रे प्रकाशं नियतं करोति रविदिनेऽस्त पुनरेव रात्रौ । ज्ञानं त्रिलोके सकले प्रकाशं करोति नाच्छादनमस्ति किंचित् ।। 99। -सुभाषितरत्नसंदोह -इस संसार में जितने भी विधि-विधान हैं वे सब ज्ञान के बिना कभी भी कल्याणकारी नहीं होते अर्थात समझ-बूझकर करने पर ही वे सब व्यवहार हितकारी होते हैं । इसीलिए अपने अहित से बचने के इच्छुक और हित के अभिलाषी पुरुष ज्ञान का ही सहारा लेते हैं । 1921 -जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुश के बिना वश में नहीं होता वैसे ही मनरूपी मदमत्त हाथी जब सुमार्ग को छोड़कर कुमार्ग में जाने लगता है तो मनुष्य ज्ञानरूपी अंकुश के बिना उसे वश में नहीं कर सकते । अर्थात् मनुष्यों का मन मदमस्त हाथी के समान उच्छृखल है । जब वह कुमार्ग में जाता है तो उसे ज्ञान के बल से ही रोका जा सकता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है ।1931 -सूर्य तो केवल दिन में ही अपने नियत क्षेत्र में नियत/परिमित प्रकाश ही करता है । रात्रि में अस्त को प्राप्त होता है। मेघों के आच्छादन से उसका प्रकाश रुक जाता है परन्तु ज्ञान का प्रकाश सम्पूर्ण तीन लोक में और अलोक में भी तथा भूत-भविष्यत्-वर्तमान तीनों कालों में सदा-सर्वदा, दिन-रात बिना रोक-टोक होता है । इसलिए ज्ञान का प्रकाश सूर्य के प्रकाश से भी अधिक है ।1991 -अनु. पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री

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