Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 35
________________ जैनविद्या - 13 ] अप्रेल 1993 [ 25 अमितगति-श्रावकाचार में सर्वज्ञसिद्धि - श्री राजवीरसिंह शेखावत से क्योंकि ज्ञान किसी न किसी माध्यम या होता है उस साधन का ग्राह्य विषय विषय का वह ग्राहक नहीं होता है ग्रहण नहीं कर पाने के कारण साधन के होने पर उसकी कोई सीमा साधारणतः हमारे ज्ञान की सीमा होती है, साधन से होता है और ज्ञान जिस किसी भी साधन नियत होता है । ग्राह्य विषय के अतिरिक्त किसी अन्य तथा एक साधन के द्वारा दूसरे साधन के ग्राह्य विषय का ही हमारे ज्ञान की सीमा होती है, जैसे चक्षु द्वारा रूप का ज्ञान होता है, रूप के अतिरिक्त शब्दादि विषयों का नहीं । प्रश्न होता है कि क्या ज्ञान 'सीमा होने का अर्थ उसका किसी साधन से होना है ? क्या ज्ञान बिना साधन के भी सम्भव है ? यदि है तो उसका स्वरूप क्या है और नहीं तो क्यों नहीं ? क्या ज्ञान बिना नहीं ? इस सन्दर्भ में साधारण अनुभव के विपरीत जैनों का मत है कि ज्ञान आत्मा को बिना किसी साधन के ही होता है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है । और आत्मा का स्वभाव जानने का है । 2 आत्मा को बिना साधन के सूक्ष्म, दूरस्थ, प्रकृष्ट, अतीत और भविष्यत् कालिक विषयों का ज्ञान होता है " किन्तु कर्मों के आवरण के आ जाने से आत्मा के ज्ञान में न्यूनता आ जाती है और जब आत्मा के समस्त आवरणों का नाश हो जाता है तब निरावरण ज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान उत्पन्न होता है जो अनन्त और अतीन्द्रिय होता है । जो ज्ञान प्रदेशरहित परमाणु अथवा कालाणु को, प्रदेशसहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और प्रकाशको मूर्ति और अमूर्तिक को, जो नष्ट हो चुकी और जो अभी उत्पन्न न हुई हो उन पर्यायों को जानता है उसे प्रतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं । प्रतीन्द्रिय ज्ञानी सर्वज्ञ होता है । यहाँ प्रश्न होता है कि सर्वज्ञ के अस्तित्व का आधार क्या है ? अर्थात् सर्वज्ञ की सिद्धि कैसे सम्भव है ? इस समस्या का समाधान करने के लिए प्रमितगति श्रावकाचार में पूर्व पक्ष को रखते

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