Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 33
________________ जैनविद्या-13 ] [ 23 अमितगति प्राचार्य ने 'अ सि प्रा उ सा' अक्षर रूप मन्त्र का मध्य कर्णिका युक्त चार पत्रवाले कमल पर प्रयत्नपूर्वक गुरुप्रसाद से नाभि-कमल, हृदय-कमल, मुखकमल, ललाट तथा मस्तक पर ध्यान करनेवाले ध्याता के समस्त कर्मों का उन्मूल बताया है। इस प्रकार प्राचार्य ने 'पदस्थ ध्यान' क्रमों द्वारा शरीरगत विकारी तत्वों का शमन कर आत्मशक्ति के केन्द्रों को जागृत करने का एक वैज्ञानिक मार्ग प्रशस्त किया है । साधक प्राप्य शक्ति द्वारा स्व-पर-कल्याण कर स्वर्ग किंवा मोक्ष का सुख प्राप्त कर सकता है अथवा प्राप्त शक्ति का उपयोग जनत्रास में कर नरकादि के दुःखों को भी प्राप्त कर सकता है। इसका सम्यक् उपयोग कर जन जन का कल्याण किया जा सकता है । ॐ शांति ! शांति !! शांति !!!........ पदान्यालंब्य पुण्यानि योगिभिर्यविधीयते । तत्पदस्थं मतं ध्यानं विविधनयपारगः ॥ - ज्ञानार्णव, सर्ग 38, श्लो. 1 । विस्तृत अध्ययन के लिए देखें यही सर्ग-38 । 2. डॉ. सोहनलाल देवोत, 'जैन-मन्त्र-विद्या : एक अध्ययन', शोध-प्रबन्ध, पृ. 181, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर सन् 1989 । 3. वही पृष्ठ 181-199 । 4. यानि पंचनमस्कारपदादीनि मनीषिणा । पदस्थं ध्यातुकामेन तानि ध्येयानि तत्त्वतः ।। - अमितगति श्रावकाचार, 15.31। 5. मरुत्सखशिखो वर्षो, भूतांतः शशिशेखरः । प्राद्य लब्ध्वादिको ज्ञात्वा ध्यातुः पापं निषूदते ॥ -अमितगति श्रावकाचार, 15.32 । 6. ॐ ह्रीं कार द्वयान्तस्थो हैं कारो रेफभूषितः । ध्यातव्योऽष्टदले पद्मे कल्मषक्षपणक्षमः ।। -अमितगति श्रावकाचार, 15.41 । 7. सकलज्ञानसाम्राज्यदानदक्षं च्युतोपमम् । समस्तमन्त्ररत्नानां, चूडारत्न सुखावहम् ॥ "ॐ ह्रीं अहं नमः" भट्टारक सकलकीर्ति, तत्वार्थसारदीपक, श्लो. 106, नमस्कार स्वाध्याय पृ. 96, प्रकाशक जैन साहित्य मण्डल, बम्बई ।

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