Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 36
________________ 26 ] [ जैनविद्या-13 हए सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है । आचार्य ने पहले मीमांसकों द्वारा उठाई गई उन तीन शंकाओं को रखा है जिनके आधार पर सर्वज्ञ के अस्तित्व को नकारा जा सकता है। वे शंकाएं इस प्रकार हैं - प्रथम - सभी जीव अल्पज्ञ और रागयुक्त हैं, तब जिसमें अल्पज्ञता और रागपना हो वह सर्वज्ञ कैसे हो सकता है। द्वितीय-प्रभाव प्रमाण द्वारा किसी विषय के अस्तित्व के निषेध की सिद्धि होती है । अतः अभाव द्वारा सर्वज्ञ का निषेध सिद्ध होता है । तृतीय सर्वज्ञ के अस्तित्व को सिद्ध करनेवाला कोई साधक प्रमाण नहीं . अर्थात् साधक प्रमाण का अभाव है अतः सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं है । इन तीनों शंकाओं का निवारण करते हुए प्राचार्य में सर्वज्ञ की सिद्धि की है जो इस प्रकार है प्रथम, अल्पज्ञता एवं रागपना के द्वारा सर्वज्ञ का निषेध युक्ति-युक्त नहीं, क्योंकि सब पदार्थों को विषय करनेवाले ज्ञान के बिना सभी पुरुषों में सब कुछ जाननेवाले ज्ञान का निषेध नहीं किया जा सकता । अर्थात् जिस व्यक्ति ने तीनों कालों के समस्त व्यक्तियों को जान लिया है कि उनमें कोई व्यक्ति सब कुछ जाननेवाला नहीं है, वही व्यक्ति सर्वज्ञ का निषेध कर सकता है अन्य नहीं ।' किन्तु ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है और यदि है तब वह ही सर्वत्र है । अतः इस युक्ति से सर्वज्ञ का निषेध न होकर सिद्धि ही होती है। द्वितीय, अभाव प्रमाण द्वारा सर्वज्ञ का निषेध भी युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि अतीन्द्रिय सर्वज्ञ के विषय में प्रभाव प्रमाण की प्रवृत्ति सम्भव नहीं है । जिस व्यक्ति को निषेध किए जानेवाले विषय का और उसके आधार का ज्ञान हो वही व्यक्ति अभाव प्रमाण द्वारा उस विषय के वहाँ न मिलने पर उसका निषेध कर सकता है जैसे कोई व्यक्ति किसी विशेष स्थान पर घट विशेष को देखता है और फिर किसी दूसरे काल में उसी स्थान पर वही घट न हो तब वह व्यक्ति उस घट का निवेध कर सकता है किन्तु सर्वज्ञ का इस प्रकार निषेध सम्भव नहीं, क्योंकि घट की तरह व्यक्ति में पाया जानेवाला सर्व-ज्ञायक ज्ञान इन्द्रिग्रगोचर नहीं है। तृतीय, यह कहना भी युक्त नहीं है कि सर्वज्ञ का कोई साधक प्रमाण नहीं, क्योंकि सर्वज्ञ का साधक अनुमान प्रमाण है जो इस प्रकार है-सन्तों द्वारा सर्वदा ज्ञात सर्वज्ञ है, क्योंकि उसके विषय में सुनिश्चित बाधक प्रमाण का अभाव है जैसे कि सुख आदि स्वसंवेदन गोचर होने से निर्बाध सिद्ध हैं 110

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