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[ जनविद्या-13
जिससे विवेक की उत्पत्ति होती है, जिससे संयम का पालन होता है, जिससे धर्म प्रकाशित किया जाता है, जिससे मोह का नाश होता है, जिससे मन का नियमन होता है, जिससे राग छेदा जाता है तथा जिससे पाप नाश किया जाता है उस शास्त्र को भव्य जीवों को देना चाहिए (9.103-104) । चूंकि शास्त्र के बिना विवेक नहीं होता, विवेक के बिना तप नहीं होता अतः तप करने के लिए शास्त्र देना योग्य है (9.105) ।
जिनपूजा-नव केवललब्धि, अष्ट प्रातिहार्य आदि गुणों से भूषित अर्हन्त भगवान् की द्रव्य और भाव से पूजा करनी चाहिए। वचन और शरीर का संकोच द्रव्यपूजा कही जाती है। मन के संकोच को भावपूजा कहते हैं (12.12) अथवा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप तथा अक्षतों से अर्हन्त भगवान् की पूजा करना द्रव्यपूजा है। जिनराज के गुणों का अनुराग से बारम्बार चिन्तन करना भावपूजा है (12.13-14)। जो व्यक्ति दोनों प्रकार से जिनराज की पूजा करता है उसके लिए दोनों लोकों में उत्तम वस्तु दुर्लभ नहीं है (12.15)। जो व्यक्ति मन, वचन, और काय से पंच परमेष्ठी की अर्चना करते हैं उनके विघ्न शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं (12.34)।
शील-संसाररूपी वैरी से भयभीत पुरुष का गुरु की साक्षीपूर्वक ग्रहण किए हुए समस्त व्रतों की रक्षा करना शील है (12.42)। समस्त वस्त्राभूषणों से रहित भी पुरुष सुशोभित होता है, किन्तु शील से रहित पुरुष सुशोभित नहीं होता है (12.45)। शील भङ्ग के कारण जुआ, वेश्यासेवन, परदारागमन तथा शिकार का परित्याग करना चाहिए । भोजन करते समय मौन धारण करना चाहिए । मौन की प्रशंसा में कहा गया है
सागारोऽपि जनो येन प्राप्यते यतिसंयमम् । मौनस्य तस्य शक्यते केन वर्णयितुं गुणाः ॥
जिस मौनव्रत से गृहस्थ भी यति के संयम को पा लेता है, उस मौनगुण का वर्णन करने में कौन समर्थ है ?
वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसन्दर्भगभिता । प्रादेया जायते येन क्रियते मौनमुज्ज्वलम् ।।
जो पुरुष उज्ज्वल मौन धारण करता है उसकी वाणी मनोरम भोर शास्त्र के सन्दर्भ से गभित होती है।
निर्मलं केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम् । लीलया लभ्यते येन कि तेनान्यन्न कांक्षितम् ।।