Book Title: Jain Vidya 13
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 24
________________ 14 ] [ जनविद्या-13 प्रकार चीलर (यूका) के भय से साड़ी का परित्याग नहीं किया जाता है। मनुष्यभव पापकर्म के उपशम के फलस्वरूप प्राप्त होता है। जिस प्रकार मनुष्यों में चकवर्ती, देवों में इन्द्र, मृगों में सिंह, व्रतों में प्रशमभाव तथा पर्वतों में सुमेरु प्रधान है, उसी प्रकार भवों में मनुष्यभव प्रधान है (1.12) । जैसे शम बिना नीति, विनय बिना विद्या, शौच (निर्लोभता) बिना कीर्ति तथा तप बिना पूजा नहीं होती उसी प्रकार मनुष्यपने के बिना जीव के हितरूप धर्म की सिद्धि नहीं होती है (1.15)। जैसे अन्न से हीन शरीर, नयन से हीन मुख, नीति से हीन राज्य, लवण से हीन भोजन, चन्द्रमा से विहीन रात्रि सुशोभित नहीं होती है, उसी प्रकार धर्म से हीन जीवन अच्छा नहीं लगता है (1.16)। अतः प्रत्येक व्यक्ति को धर्म का आचरण करना चाहिए। धर्म क्या है ? इसके विषय में विवेक रखना चाहिए। जहाँ जीवों के समूह का हनन होता है, मद्यपान किया जाता है, परस्त्री सेवन किया जाता है, अनर्थ का मूल-मांस ग्रहण किया जाता है, वहाँ धर्म का अंश भी नहीं है (1.33)। यदि हिंसादिक धर्म है तो लौकिक प्राचार में कोई भी पापी नहीं है (1.38)। धर्म की वृद्धि करनेवाले मनुष्य को सबसे पहले मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए। जसे जीवन और मरण एक-दूसरे के विरोधी हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व और धर्म का विरोध है (2.1)। मिथ्यात्व सात (2.5) प्रकार का है-1. एकान्त, 2. संशय, 3. विनय, 4. गृहीत, 5. विपरीत, 6 निसर्ग और 7. मूढदृष्टि । यह मिथ्यात्व दर्शन-मोहनीय के उदय से होता है। जिस प्रकार ऊसर भूमि में धान्य की उत्पत्ति नहीं होती है उसी प्रकार मिथ्यात्व से वासित जीवों में व्रतों का अंकुर नहीं फूटता है (2.22)। मिथ्यादृष्टि सात प्रकार के होते हैंतीन तो वे जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में से किसी एक को नहीं मानते हैं, तीन वे जो इनमें से किन्हीं दो को नहीं मानते हैं और एक वे जो इन तीनों को नहीं मानते हैं । इस तरह सात प्रकार के (2.26) मिथ्यादृष्टि होते हैं । जिसने सम्यक्त्व को ग्रहण किया उसी का जीवन सफल है। सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले पुरुष को जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान होना चाहिए (3.1)। सम्यक्त्वी जीव को समस्त एकान्त मतों का परित्याग करना चाहिए। व्रत धारण करनेवाले श्रावक को सर्वप्रथम मद्य, मांस, मधु, नवनीत, रात्रिभोजन तथा पांच उदुम्बर फलों का परित्याग करना चाहिए । अन्यत्र इन सबके त्याग को मूलगुणों में समाविष्ट किया है, किन्तु अमितगति श्रावकाचार में इनका मूलगुण नाम से कथन नहीं किया है। मद्यादिक से विरक्त पुरुष को पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-इन बारह व्रतों का पालन अवश्य करना चाहिए । पाँच अणुव्रत ये हैं अणुवत ___ 1. अहिंसाणुव्रत-दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय सैनी, असैनी, इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त की अपेक्षा भेद करने पर दश प्रकार के त्रसों की जो रक्षा करता है

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