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और जन्म स्वयं उनके लिये एवं अन्य जनों के लिये सुखकारी होता है। उस पर जिससमय तीर्थङ्कर भगवान तपस्वी बनने के लिये पुरुषार्थी होते हैं, उस समय के प्रभाव का चित्रण शब्दों में करना दुष्कर है । वह महती अनुष्ठान है-संसार में सर्वतोभद्र है । उस समय कर्मवीरसे धर्म वीर ही नहीं बल्कि वह धर्म चक्रवर्ती बननेकी प्रतिज्ञा करते हैं। उनके द्वारा महती लोकोपकार होने का पुण्य-योग इसीसमय से घटित होता है । अब भला बताइये उनका तपोवन क्यों न पतितपावन हो? उसके दर्शन करने से क्यों न धर्म मार्ग का पर्यटक बनने का उत्साह जागत हो?
उसपर केवल ज्ञान-कल्याण-महिमा की सीमा असीम है। इसी अवसर पर तीर्थंकरत्व का पूर्ण प्रकाश होता है। इसी समय तीर्थङ्कर भगवान् को धर्मचक्रवर्तित्व प्राप्त होता है। वह ज्ञानपुञ्ज रूप सहस्त्र सूर्य प्रकाश को भी अपने दिव्य आत्मप्रकाश से लज्जित करते हैं। खास बात इस कल्याणक की यह है कि यही वह स्वर्ण घड़ी है, जिसमें लोकोपकार के मिस से तीर्थङ्कर भगवान द्वारा धर्म-चक्र प्रवर्तन होता है। यही वह पुण्यस्थान है, जहाँ जीवमात्र को सुखकारी धर्मदेशना कर्णगोचर होती है और यहीं से एक स्वर्ण-वेला में तीर्थङ्कर भगवान् का विहार होता है, जिसके आगे-आगे धर्म-चक्र चलता है। सारे आर्य-खण्ड में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेन्द्र प्रभू का विहार और धर्मोपदेश होता है। अन्तःआयुकर्म के निकट अवसान में वह जीवन्मुक्त
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