Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad Publishing House

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Page 10
________________ ( ३ ) तिलतुषमात्र परिग्रह का त्याग करके मोक्षपुरुषार्थ के साधक बनते हैं, वे वहां पर आसन माड़कर तपश्चरण, ज्ञान और ध्यान का अभ्यास करते हैं अन्तमें कर्मशत्रुओं - रागद्वेषादिका नाश करके परमार्थको प्राप्त करते हैं । यहीं से वह मुक्त होते हैं । इसलिये ही निर्वाणस्थान परमपूज्य हैं। ' किन्तु निर्वाणस्थानके साथ ही जैनधर्म में तीर्थङ्कर भगवान्के गर्भ- जन्म - तप और ज्ञान कल्याणके पवित्र स्थानों को भी तीर्थ कहा गया है वे भी पवित्रस्थान हैं । तीर्थङ्कर कर्मप्रकृति जैन - कर्मसिद्धांत में एक सर्वोपरि पुण्य प्रकृति कही गई है। जिस महानुभाव के यह पुण्यप्रकृति बंध को प्राप्त होती है, उसकी अनुसारिणी अन्य सबही पुण्यप्रकृतियां हो जाती हैं । यही कारण है कि भावी तीर्थङ्कर के माता के गर्भ में आनेके पहले ही वह पुण्य प्रकृति अपना सुखद प्रभाव प्रगट करती है। उनका गर्भावतरण 1 १ - ' कल्पान्निर्वारण कल्याण मत्रेत्यामर नायकाः । गंधादिभि समभ्यर्च तत्क्षेत्रमपवित्रयन् ।। ६३ ।। पर्व ६६ ।।' - उत्तर पुराण । अर्थ - निर्वाण कल्याण का उत्सव मनाने के लिये इंद्रादि देव स्वर्ग से उसी समय आये और गंध अक्षत आदि से क्षेत्र की पूजा करके उन्होंने उसे पवित्र बनाया। अतः निर्वाण क्षेत्र स्वतः पूज्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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