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( १६ ) जगके विवाद नासिबे की जिन आगम है, जामें स्याद्वार नाम लच्छन सुहायो है ॥ दरसनमोह जाको गयो है सहजरूप, आगम प्रमान ताके हिरदै मैं आयो है। अनौं अखंडित अनूतन अनंत तेज,
ऐसौ पद पूरन तुरन्त तिनि पायौ है । अर्थ-निश्चयनय मे पदार्थ एकरूप है और व्यवहार मे अनेकरूप है। इस नय-विरोध मे ससार भूल रहा है, सो इस विवाद को नष्ट करने वाला जिनागम है । जिसमे स्याद्वाद् का शुभ चिह्न है। (मुहरछाप लगी है-स्याद्वाद् से ही पहिचाना जाता है कि यह जिनागम है)। जिस जीव को दर्शनमोहनीय का उदय नही होता उसके हृदय मे स्वत स्वभाव यह प्रमाणिक जिनागम प्रवेश करता है और उसे तत्काल ही नित्य, अनादि और अनन्त प्रकाशमान मोक्षपद प्राप्त होता है।
प्रश्न ३-स्याद्वाद, अनेकान्त के विषय में पुरुषार्थ सिद्धयपाय श्लोक २२५ में अमृतचन्द्राचार्य जी ने क्या बताया है? उत्तर-एकनाकर्षन्ती श्लयपन्ती वस्तुतत्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिमत्थान नेत्रमिव गोपी। अर्थ-मथनी को रस्सी खीचने वाली ग्वालिन की भाँति, जिनेन्द्र भगवान की जो नीति अर्थ नय-विवक्षा है वह वस्तु स्वरूप को एक नय-विवक्षा से खीचती है और दूसरो नय-विवक्षा से ढील देती हुई अन्त अर्थात् दोनो विवक्षा द्वारा जयवत रहे ।
भावार्थ-भगवान की वाणी स्यादवादरूप अनेकान्तात्मक है, वस्तु का स्वरूप प्रधानतया-गौणनय की विवक्षा से किया जाता है। जैसे कि-जीव द्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी है, द्रव्याथिकनय की विवक्षा से नित्य है और पर्यायाथिकनय की विवक्षा से अनित्य है यह नय विवक्षा है।