Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 265
________________ पुरुप पाप वा ग्लानिकार करने कर अपने तार ( 255 ) अथवा इन्द्रियो की रुचि के विरुद्ध भोगो में उद्व गरूप होना ये सब ससारिक वाछाए हैं जिस पुरुष के ये न हो सो निकाक्षित अङ्ग युक्त है। सम्यग्दृष्टि यद्यपि रोग के उपायवत् पचेन्द्रियो के विषय सेवन करता है तो भी उसको उनसे रुचि नही है / ज्ञानी पुरुष व्रतादि शुभाचरण करता हुवा भी उनके उदयजनित शुभ फलो की वाछा नही करता, यहा तक व्रतादि शुभाचरणो को अशुभ से बचने के लिये आच-- रण करते हुवे भी उन्हे हेय जानता है। प्रश्न २३७-निविचिकित्सा अंग किसे कहते हैं ? उत्तर-अपने को उत्तम गुणयुक्त समझकर अपने ताई श्रेष्ठ मानने से दूसरे के प्रति जो तिरस्कार करने की बुद्धि उत्पन्न होती है उसे विचिकित्सा या ग्लानि कहते हैं। इस दोष के चिन्ह ये हैं-जो कोई पुरुप पाप के उदय से दुखी हो या आसता के उदय से ग्लान-शरीर युक्त हो, उसमे ऐसी ग्लानिरूप बुद्धि करना कि-"मैं सुन्दर रूपवान्, सपत्तिवान, बुद्धिमान हूँ, यह रक-दीन, कुरूप मेरी बराबरी का नहीं" सम्यग्दृष्टि के ऐसे भाव कदापि नही होते वह विचार करता है कि जीवो को शुभाशुभ कर्मो के उदय से अनेक प्रकार विचित्र दशा होती, है / कदाचित् मेरा भी अशुभ उदय आ जाय तो मेरी भी ऐसी दुर्दशा होना कोई असम्भव नही है / इसलिए वह दूसरो को हीन बुद्धि से या ग्लान-दृष्टि से नही देखता। प्रश्न २३८-अमूढदृष्टि मग किसे कहते हैं ? उत्तर-अतत्त्व मे तत्त्व के श्रद्धान करने की बुद्धि को मूढदृष्टि कहते है / जिनके यह मूढदृष्टि नही है वे अमूढदृष्टि अग युक्त सम्यादृष्टि है / इसके बाह्य चिन्ह यह हैं-मिथ्यादृष्टियो ने पूर्वापर विवेक बिना, गुण दोष के विचार रहित, अनेक पदार्थों को धर्मरूप वर्णन किये हैं और उनके पूजने से लौकिक और पारमार्थिक कार्यों की सिद्धि बतलाई है / अमूढदृष्टि का धारक इन सब को असत्य जानता और उनमे धर्मरूप बुद्धि नही करला तथा अनेक प्रकार की लौकिक मूढताओ को

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