Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 269
________________ ( 256 ) सम्यग्दर्शन का माहात्म्य श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार जी मे कहा है यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् / अथ पापात्रवोऽस्त्यन्यसम्पदाकि प्रयोजनम् // 27 // अर्थ-यदि (सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से) पाप का निरोध है अर्थात आगामी कर्मों का सवर है तो हे जीव / अन्य सम्पदा से तुझे क्या प्रयोजन है ? कुछ नही / और यदि सम्यग्दर्शन के अभाव मे पाप का आस्रव है अर्थात् कर्मो का आगमन है तो भी हे जीव / तुझे अन्य सम्पदा से क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-जीव को सबसे अधिक सम्पदाओ की अभिलाषा है तो गुरुदेव समझाते हैं कि हे जीव / यदि सम्यग्दर्शन रूपी महान् सम्पदा प्राप्त हो गई तो अन्य सम्पदायें तेरे किस काम की। इस सम्पदा से तुझे आस्रव का निरोध होगा और उसके फलस्वरूप महान् अतीन्द्रिय सुख रूप मोक्ष मिलेगा। अन्य सम्पदा तो नाशवान है। वह तेरे कुछ काम नही आती। भाई, उनको आत्मा छ्ता भी नही / नीचे की पक्ति मे नास्ति से समझाते है कि यदि सम्यक्त्व रूप सच्ची सम्पदा नहीं है और शेष जगत् की सव सम्पदाये है। महान् अहमिन्द्र पद तक प्राप्त है तो रहो हे जीव / मिथ्यादर्शन रूपी महान् शत्रु से तुझे कर्म बन्धता रहेगा और उसके फलस्वरूप नरक निगोद मे चला जायेगा। यह सब सम्पदा यही पडी रह जायेगी। इसलिये भाई, इन सम्पदाओ की अभिलापा छोड / ये तो जीव को अनेक बार मिली / असली सम्यक्त्व रूपी सम्पदा का प्रयत्न कर, जिसके सामने ये सब हेय हैं / सम्यग्दर्शन से ज्ञान और चारित्र सम्यक हो जाते हैं और उनका गमन भी मोक्षमार्ग की ओर चल देता है अन्यथा ग्यारह अग तक ज्ञान और महाव्रत तक चारित्र व्यर्थ है। केवल बन्ध करने वाला है। (देखिये

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