Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 280
________________ ( 270 ) भी हो सकता क्योकि ग्यारहवे, वारहवें में ज्ञानावरण तो हे पर राग नही है। जहाँ-जहाँ राग है वहाँ-वहाँ ज्ञानावरण है इससे राग का तो ज्ञानावरण के साथ पक्का सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है पर जहाँ-जहाँ ज्ञानावरण है वहाँ-वहाँ राग हो-यह सिद्ध न होने से ज्ञानावरण का राग से कुछ सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। प्रश्न २७२-राग की और दर्शनमोह की कौन-सी व्याप्ति है ? उत्तर-कोई नही क्योकि न राग से दर्शनमोह बन्धता है और न दर्शनमोह के उदय से राग होता है। राग की व्याप्ति चारित्रमोह से है -दर्शनमोह से नही। इससे यह सिद्ध किया जाता है कि सम्यग्दर्शन सविकल्पक नही / सम्यग्दृष्टि के चारित्र मे कृष्ण लेश्या रहते हुए भी शुद्ध सम्यक्त्व बना ही रहता है [यहाँ राग से आशय केवल चारित्रमोह सम्बन्धी राग से है] / प्रश्न २७३--सम्यग्दर्शन-बन्ध और मोक्ष से किसकी व्याप्ति नहीं है तथा किसकी है ? - उत्तर-सम्यग्दर्शन-बन्ध-मोक्ष से उपयोग की व्याप्ति नही है। दर्शनमोह के अनुदय की व्याप्ति सम्यग्दर्शन से है। राग की व्याप्ति वन्ध से है और सवर निर्जरा की व्याप्ति मोक्ष से है। प्रश्न २७४-अन्वय व्यतिरेक किस को कहते हैं ? उत्तर-जिसके होने पर जो हो–उसको अन्वय कहते है और जिसके नही होने पर जो न हो--उसको व्यतिरेक कहते है जैसे जहाँजहाँ सम्यक्त्व है वहाँ-वहाँ दर्शनमोह का अनुदय है-यह अन्वय है और जहाँ-जहाँ दर्शनमोह का अनुदय नही है-वहाँ-वहाँ सम्यक्त्व भी नही है—यह व्यतिरेक है। प्रश्न 275--- व्याप्ति के जानने से क्या लाभ है ? उत्तर-इससे पदार्थों के सहचर्य सम्बन्ध का पता चल जाता है कि किन पदार्थों की किन पदार्थों के साथ सहचरता है या नहीं। ये अविनाभाव की कसौटी है। इससे परख कर देख लेते हैं। इससे एक पदार्थ जसको कहत कन्वय कहतः जहाँ

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