Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 287
________________ ( 277 ) रूप केवलज्ञान और क्षायोपशमिक परिणमन रूप शेष 4 ज्ञान और 3 कुज्ञान / [अज्ञान भाव तो औदयिक अश की अपेक्षा है] / इसी प्रकार दर्शन गुण मे दर्शनावरण निमित्त है / इस गुण की भी दो अवस्था होती है। क्षायिक परिणमन रूप केवल दर्शन, क्षायोपशमिक परिणमन रूप शेप 3 दर्शन / दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यगुण मे अन्तराय कर्म निमित्त है। इन गुणो की भी दो अवस्था होती है। क्षायिक परिणमन रूप क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य / क्षायोपशमिक परिणमन रूप क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य उपरोक्त सब क्षायोपशमिक भाव बारहवें गुणस्थान तक है और क्षायिक भाव तेरहवे से प्रारम्भ होकर सिद्ध तक हैं। सायोपशमिक माव पान, लाभ, भोग, र वीर्य / क्षायोपशामरिणमन रूप मोहनीय के 2 भेद हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह। आत्मा के सम्यक्त्व [श्रद्धा] गुण मे दर्शनमोह निमित्त है और चारित्र गुण मे चारित्रमोह निमित्त है। श्रद्धा गुण की 4 अवस्था होती है। पहले, दूसरे, तीसरे मे इसकी औदयिक अवस्था है / चौथे से सातवें तक प्रथम नम्बर की औपशमिक सम्यक्त्व अवस्था और आठवे से ग्यारहवे तक दूसरी औपशमिक सम्यक्त्व अवस्था रह सकती है / चौथे से सातवें तक क्षायोपशमिक अवस्था रह सकती है और चौथे से सिद्ध तक क्षायिक अवस्था रह सकती है / दर्शनमोह का उदय मिथ्यात्व भाव मे निमित्त है। इसका क्षयोपशम, क्षय तथा उपशम क्रमश क्षायोपशमिक, क्षायिक और औपशमिक सम्यक्त्व मे निमित्त है। चारित्र गुण की भी 4 अवस्थायें होती हैं / असयम भाव मे चारित्रमोह का उदय निमित्त है। यह भाव पहले चार गुणस्थानो मे होता है। उसका क्षय-क्षायिक चारित्र मे निमित्त है और बारहवे से ही होता है। इसका उपशम औपशमिक

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