Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 268
________________ ( 258 ) कि मोक्ष का भी ज्ञाता द्रष्टा बन जाता है। केवल सामान्य आत्मा में स्वपने को बुद्धि रह जाती है। (10) सम्यग्दर्शन मे-इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख मे हेय बुद्धि हो जाती है / अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख की रुचि जागृत हो जाती है। (11) सम्यग्दर्शन से-आत्मप्रत्यक्ष हो जाता है / (12) सम्यग्दर्शन से-सातावेदनीय से प्राप्त सुख सामग्री मे उपादेय बुद्धि नष्ट हो जाती है। (13) सम्यग्दर्शन से-विषयसुख मे और पर में अत्यन्त अरुचि भाव हो जाता है। (14) सम्यग्दर्शन से-केवल ज्ञानमय भाव उत्पन्न होते हैं। अज्ञानमय भावो की उत्पत्ति का नाश हो जाता है। (15) सम्यग्दर्शन से ही धर्म प्रारम्भ होता है। सम्यग्दर्शन पहला धर्म है और चारित्र दूसरा धर्म है / जगत मे और धर्म कुछ नही (16) सम्यग्दर्शन से-मिथ्यात्व सवधी कर्मों का अनादिकालीन 'निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध छूट जाता है। (17) सम्यग्दर्शन से--अनादि पचपरावर्तन की शृखला टूट जाती है। (18) सम्यग्दर्शन से-नरक, तिर्यच और मनुष्य गति नहीं बन्धती। केवल देवगति मे ही सहचर रागवश जाता है। यदि पहले वधी हो तो नरक मे प्रथम नरक के प्रथम पाथडे से आगे नही जाता। तिर्यच या मनुष्य, उत्तम भोगभूमि का होता है। (16) सम्यग्दर्शन से--नियम से उसी भव मे या थोडे से भवो मे नियम से मोक्ष होकर सब दु खो से छुटकारा सदा के लिये हो जाता ऐसे महान पवित्र सम्यग्दर्शन को कोटिश नमस्कार है।

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