Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 274
________________ ( 264 ) उत्तर-पहले गुणस्थान मे तो चारित्र गुण का परिणमन सर्वथा राग रूप ही है / अत वह तो सविकल्प ही है। चौथे मे अनन्तानुबधी अश को छोड कर चारित्र का शेष अश सविकल्प है-राग रूप है। पांचवे छठे मे जितना बुद्धि अवुद्धिपूर्वक गग है उतना चारित्र का परिणमन विकल्प रूप है। सातवें से दसवे तक जितना अबुद्धिपूर्वक राग है उतना चारित्र का परिणमन विकल्प रूप है। चारित्र वास्तव मे सविकल्पक है पर जहाँ जितना चारित्र राग रहित है वहाँ उतना वह भी निर्विकल्पक है। चारित्र भी सर्वथा सविकल्पक हो-ये बात नहीं है। स्वभाव से तो चारित्र भी निर्विकल्पक ही है और जितना मोक्षमार्गरूप [सवर-निर्जरा रूप] है उतना भी निर्विकल्पक ही है। जितना जहाँ रागरूप परिणत है वह निश्चय से सविकल्पक ही है। प्रश्न २५१-चौथे पांचवें छठे में तीनो गुणों की वास्तविक परिस्थिति बताओ? उत्तर-इन गुणस्थानो मे सम्यग्दर्शन तो श्रद्धा गुण की शुद्ध पय यि है जो राग रहित निर्विकल्प है। सम्यग्ज्ञान ज्ञानगुण के क्षयोपशम रूप है / इसका कार्य केवल स्व पर को जानना है / राग से इसका भी कुछ सम्बन्ध नही है / चारित्र मे जितनी स्वरूप स्थिरता है उतना तो शुद्ध अश है और जितना राग है उतनी मलीनता है / अत चारित्र को यहाँ सराग या सविकल्प कहते है। प्रश्न २५२-सातवे से बारहवे तक तीनो गुणो की वास्तविक परिस्थिति क्या है ? उत्तर-श्रद्धा गुण की सम्यग्दर्शन पर्याय तो वैसी ही शुद्ध है जैसी छठे तक थी। उसमे कोई अन्तर नही है / ज्ञान है तो क्षयोपशम रूप पर बुद्धिपूर्वक सब का सब उपयोग स्वज्ञेय को ही जानता है। राग से इसका भी कुछ सम्बन्ध नही है। चारित्र मे बुद्धिपूर्वक राग तो समाप्त हो चुका। अबुद्धिपूर्वक का कुछ राग दसवें तक है। शेष सब शुद्ध परिणमन है और वारहवे मे राग नाश होकर चारित्रपूर्ण वीतराग है /

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