Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 270
________________ ( 260 ) इसी ग्रन्थ का न० 1537) / इसलिये ससार सागर से तरने के लिये सम्यग्दर्शन खेवट के समान कहा है। दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते / दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते // 31 // विद्यावृत्तस्य सभूतिस्थितिवृद्धिफलोदया। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव // 32 // भावार्थ-ज्ञानचारित्र से पहले सम्यग्दर्शन की ही साधना की जाती है क्योकि वह मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान कहा गया है। ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति स्थिति वृद्धि और अतीन्द्रिय सुख रूपी फल सम्यक्त्व के अभाव मे नही होते जैसे बीज के अभाव मे वृक्ष की उत्पत्ति स्थिति, वृद्धि और फल लगना नहीं होता। दसण मूलो धम्मो। यहा सम्यग्दर्शन को वीजवत् कहा है और चारित्र को वृक्षवत् कहा है और अतीन्द्रिय सुख रूप मोक्ष उसका फल कहा है। अत पहले सम्यग्दशन का पुरुपार्थ करना ही सर्वश्रेष्ठ है। गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् / अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुने. // 33 // अर्थ-सम्यग्दृष्टि गृहस्थी मोक्ष की ओर जा रहा है किन्तु मिथ्यादृष्टि मुनि ससार (निगोद)की ओर जा रहा है। अत उस मिथ्यादृष्टि मुनि से वह सम्यग्दृष्टि श्रेष्ठ है। इससे सम्यक्त्व का माहात्म्य प्रगट ही है। (4) प्रथम नरक दिन षटभू ज्योतिष, वान भवन षढ नारी। थावर विकलत्रय पशु मे नाहि, उपजत सगकितधारी / / तीनलोक तिहुं कालमाहि, नहिं दर्शन सम-सुखकारी। सफलधरम को मूल यही, इस दिन करनी दुःखकारी॥ मोक्षमहल की परथम सीढी, या विन ज्ञान चरित्रा। सम्यकता न लहै, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा॥

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